Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतक
और वही अपना शत्रु है - दूसरा कोई अपना बन्धु और शत्रु नहीं है' |
जैन दर्शन के अन्तर्गत समाधितन्त्र में भी प्रकारान्तर से यही कहा गया है कि अपनी श्रात्मा ही अपने लिए जन्म को — जन्म-मरणरूप संसार को प्राप्त कराती है और वही निर्वाण को मुक्तिसुख को भी प्राप्त कराती है। इसीलिए वास्तव में अपनी आत्मा ही अपना गुरु - हित की शिक्षा देने वाला बन्धु है, अन्य कोई गुरु नहीं है ।
८ गीता में योग की स्थिरता के लिए दीपक की उपमा देते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार वायु से रहित दीपक स्थिर रहता है उसी प्रकार चित्त की चंचलता से रहित योगी का योग भी स्थिर रहता 1
ध्यानशतक में उक्त दीपक की उपमा देते हुए यह कहा गया है कि जिस प्रकार घर में स्थित वायुविहीन दीपक अतिशय स्थिर रहता है उसी प्रकार एकत्व-वितर्क-प्रविचार नाम का दूसरा शुक्लध्यान उत्पाद, स्थिति (ध्रुतता) और व्यय से किसी एक ही पर्याय में स्थिर रहता है-वह एक अर्थ से अर्थान्तर में, शब्द से शब्दान्तर में और एक योग से योगान्तर में संक्रमण नहीं करता है ।
६ गीता में कहा गया है कि जो योगी स्थिर होकर शरीर, शिर और ग्रीवा को समान और निश्चल धारण करता हुआ दिशाओं को नहीं देखता है, किन्तु अपनी नासिका के अग्रभाग का अवलोकन करता है वह निर्वाणस्वरूप परम शान्ति को प्राप्त करता है । यथा
समं काय-शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ ६-१३.
लगभग यही भाव वरांगचरित, तत्त्वानुशासन और श्रमितगति श्रावकाचार के निम्न श्लोकों में उपलब्ध होता है
मध्ये ललाटस्य मनो निधाय नेत्रभ्रुवोर्या खलु नासिकाग्रे ।
एकाग्रचिन्ता प्रणिधान संस्था समाधये ध्यानपरो बभूव ॥ वरांगच. ३१-६६.
नासाग्रन्यस्तनिष्पन्द लोचनो मन्दमुच्छ्वसन् ।
द्वात्रिंशद्दोष निर्मु क्कायोत्सर्गव्यवस्थितः ॥ तत्त्वानु. ६३.
स्थित्वा प्रदेशे विगतोपसर्गे पर्यङ्कबन्धस्थितपाणि-पद्मः ।
नासा संस्थापितदृष्टिपातो मन्दीकृतोच्छ्वासविवृद्धवेगः । श्रमित. श्र. १५- ६१.
जैन दर्शन के साथ योगसूत्र की समानता
महर्षि पतञ्जलि विरचित योगसूत्र यह योगविषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । उसमें संक्षेप से योग
के महत्त्व को प्रगट करते हुए उसकी सांगोपांग प्ररूपणा की गई है । वह समाधि, साधना, विभूति और
१. उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । श्रात्मैवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ६-५. बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। ६-६. २. नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ॥ ७५.
लगभग यही अभिप्राय इष्टोपदेश के ३४वें श्लोक में भी प्रगट किया गया है ।
३. यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥६-१६.
४. घ्या. श. ७६-८०.