Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतक
में धर्म्य और शुक्ल के दुःशक्य ध्येय के अभ्यास के प्रसंग में कहा गया है कि पिण्डसिद्धि और शुद्धि के लिए प्रथमतः क्रम से मारुती, तैजसी और पाप्या धारणाओं का आराधन करना चाहिए (१८३) । प्रागे इन धारणाओं को कम से कुछ स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि ध्याता 'अहं' के प्रकार को वायु से पूर्ण व कुम्भित करके रेफ से प्रगट हुई अग्नि के द्वारा अपने शरीर के साथ कर्म को भस्मसात् करके उस भस्म को स्वयं विरेचित करता हुआ आत्मा में अमृत के बहानेवाले 'ह' मंत्र का आकाश में चिन्तन करे और यह विचार करे कि उससे अन्य अमृतमय शरीर निर्मित हो रहा है। तत्पश्चात् पांच स्थानों में निक्षिप्त पांच पिण्डाक्षरों से युक्त पंचनमस्कार पदों से सकलीकरण क्रिया को करे और तब अपने को अरहन्त और कर्ममल से रहित सिद्ध जैसा ध्यान करे (१८४-८७)।
सम्भव है ज्ञानार्णव के कर्ता ने तत्त्वानुशासन से उक्त तीन धारणामों को लेकर और उनमें पार्थिवी व तत्त्वरूपवती इन दो धारणाओं को और सम्मिलित करके उन्हें यथाक्रम से व्यवस्थित रूप में विकसित किया हो।
वसुनन्दि-श्रावकाचार में प्रकृत पिण्डस्थध्यान के प्रसंग में यह कहा गया है कि धवल किरणों से प्रकाशमान व आठ महाप्रातिहार्यों से वेष्टित जो प्रात्मा का ध्यान किया जाता है उसे पिण्डस्थध्यान जानना चाहिए । आगे विकल्प रूप में वहां यह भी कहा गया है कि अथवा नाभि में मेरु की कल्पना करके उसके अधोभाग में अधोलोक, दूसरे तिर्यग्भाग में मध्यलोक, ऊर्ध्वभाग में कल्पविमान, ग्रीवास्थान में प्रैवेयकों, ठोडीप्रदेश में अनुदिशों; मुखप्रदेश में विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थ इन अनुत्तरविमानों; ललाटदेश में सिद्धशिला और उसके ऊपर शिर की शिखा पर सिद्धक्षेत्र; इस प्रकार से जो अपने शरीर का ध्यान किया जाता है उसे भी पिण्डस्थध्यान समझना चाहिए (४५६-६३) ।
गुरुगुणषत्रिंशिका की स्वोपज्ञ वृत्ति में कहा गया है कि नाभि-कमलादि रूप स्थानों में जो इष्ट देवता प्रादि का ध्यान किया जाता है उसे पिण्डस्थध्यान कहते हैं (२, पृ. १०)। पदस्थ
भावसंग्रह में पदस्थध्यान के स्वरूप को व्यक्त करते हुए यह कहा गया है कि देशविरत गुणस्थान में जो देवपूजा के विधान का कथन किया गया है उसे पदस्थध्यान कहते हैं। अथवा पांच गुरुषों से सम्बद्ध जो एक पद या अक्षर का जाप किया जाता है वह भी पदस्थध्यान कहलाता है (६२६-२७)।
ज्ञानसार में पदस्थध्यान के प्रसंग में यह कहा गया है कि सातवें वर्ग के दूसरे वर्ण (र) से युक्त आठवें वर्ग के चतुर्थ वर्ण (ह) के ऊपर शून्य रखकर र् से संयुक्त करने पर उसे तत्त्व (है) समझो । एक, पांच, सात और पैतीस धवल वर्गों का जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थध्यान कहा गया है । आगे पुनः पैतीस अक्षरों के महामंत्र के साथ प्रणव (ॐ) आदि के जपने का निर्देश करते हुए पांच स्थानों में पांच कमलों पर क्रम से पांच वर्णों को तथा सात स्थानों में सात अक्षरों को स्थापित कर उनके साथ जो सिर पर सिद्धस्वरूप का ध्यान किया जाता है, इसे पदस्थध्यान कहा गया है, इत्यादि (२१-२७) ।
अमितगति-श्रावकाचार में इस पदस्थध्यान के प्रसंग में पंच नमस्कार पदों के ध्यान का विधान करते हुए अनेक प्रकार के मंत्राक्षरों व मंत्रपदों के जपने का उपदेश दिया गया है (१५, ३१-४६)।
ज्ञानार्णव (१, पृ. ६८७) और योगशास्त्र (८-१) में पदस्थध्यान के स्वरूप को दिखलाते हुए समान रूप में यह कहा गया है कि पवित्र पदों का पालम्बन लेकर जो अनुष्ठान या चिन्तन किया जाता है उसे पदस्थध्यान कहते हैं। आगे इन दोनों ग्रन्थों में अक्षर और मंत्र पदों का विस्तार से व्याख्यान किया गया है।
वसुनन्दि-श्रावकाचार में एक अक्षरादिरूप जो परमेष्ठी, के वाचक निर्मल पद हैं उनके उच्चारणपूर्वक ध्यान करने को पदस्थध्यान कहा गया है (४६४)। । १. ज्ञाना. १-११६, पृ. ३८७.४०६; यो. शा. ८, २-८१.