Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
२६ मन के द्वारा विकल्परूप तथा काय के द्वारा परिस्पन्दरूप जो अन्य के संयोगस्वरूप चित्तवृत्तियां उदित होती हैं उनका इस प्रकार से निरोध करना कि जिससे उनका पुनः प्रादुर्भाव न हो सके, यह वृत्तिसंक्षययोग कहलाता है।
महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है।
भगवद्गीता में आसक्ति को छोड़कर कार्य करते हुए उनकी सिद्धि व असिद्धि में सम-हर्षविषाद से रहित होना, इसे योग कहा गया है।
भगवद्गीता का अभिधेय भगवद्गीता यह महाभारत का एक अंश है। कौरवों और पाण्डवों के बीच जब युद्ध प्रारम्भ होने को था तब अर्जुन की इच्छानुसार कृष्ण ने उसके रथ को युद्धभमि में ले जाकर दोनों सेनाओं के मध्य में खड़ा कर दिया। वहां सामने विपक्ष के रूप में स्थित गुरु द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह और दुर्योधन आदि गुरुजनों व बन्धुजनों को देखकर अर्जुन का हृदय व्यथित हो उठा। वह कृष्ण से बोला-हे कृष्ण ! सामने युद्ध की इच्छा से उपस्थित इन गुरुजनों और बन्धुजनों को देखकर मेरा सब शरीर कांप रहा है । युद्ध में इनका वध करके कल्याण होने वाला नहीं है। इन गुरुजनों और बन्धुजनों का घात करके मुझे न विजय चाहिए, न राज्य चाहिए और न सुख भी चाहिए । यदि ये मेरा घात करते हैं तो भी मैं इनका घात नहीं करना चाहता।
इस प्रकार दयाहृदय व अश्रुपूर्ण नेत्रों से युक्त विषण्णवदन अर्जुन को देखकर कृष्ण ने उसे युद्धोन्मुख करने के लिए जो आध्यात्मिक उपदेश दिया वह गीता का प्रमुख अभिध्येय रहा है। वह गीता १८ अध्यायों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय के अन्त में जो अन्तिम पुष्पिकावाक्य है उसमें उसे योगशास्त्र कहा गया है। वैसे तो सम्पूर्ण ग्रन्थ में ही कुछ न कुछ योग की चर्चा की गई है, पर उसके छठे अध्याय में विशेष रूप से योग और योगी के स्वरूप का विचार किया गया है।
अर्जुन के उपर्युक्त विषादपूर्ण वचनों को सुनकर श्रीकृष्ण बोले कि जिनके लिए शोक न करना चाहिए उनके लिए तू शोक करता है और पण्डिताई के वचन बोलता है। परन्तु पण्डितजन जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिए और जो जीवित हैं उनके लिए भी शोक नहीं किया करते है। इस प्रकार अर्जुन को प्रथमत: ज्ञानयोग का उपदेश देते हुए आगे फिर कहा गया है कि मैं कभी नहीं था, या तू कभी नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे, ऐसा नहीं है, तथा ये सब आगे नहीं रहेंगे सो भी बात नहीं हैमात्मा के नित्य होने से ये सब पूर्व में थे और भविष्य में भी रहने वाले हैं। जिस प्रकार इस शरीर में क्रम से कुमार अवस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था प्राप्त होती है उसी प्रकार अन्य-अन्य शरीर भी प्राप्त १. योगबिन्दु ४६६. २. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । यो. सू. १-२. ३. योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धघसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ २-४८. यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव । न हयसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ।। ६.२. . सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ ६-२६.
(अध्याय ६ के १७-२३ श्लोक भी द्रष्टव्य हैं)। ४. भ.गी. १, २८-३५. ५. प्रशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ भ, गी. २-११.