Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
गुरुगुणट्त्रिंशिका की स्वोपज्ञ वृत्ति (वि. १५वीं शती) में स्वाध्याय, मंत्र तथा गुरु व देवता की स्तुति में जो चित्त की एकाग्रता होती है उसे पदस्थध्यान कहा गया है (२, पृ. १०)।
वामदेव (वि. १५वी शती) विरचित भावसंग्रह में प्राकृत भावसंग्रह के समान पांच गुरुपों से सम्बद्ध पदों के ध्यान को पदस्थध्यान माना गया है (६६२) ।
इस प्रकार पदस्थध्यान के स्वरूप के विषय में प्रायः सभी ग्रन्थकार हीनाधिक रूप में सहमत हैं। रूपस्थ
ज्ञानसार में रूपस्थभ्यान का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि भ्याता घातिया कर्मों से रहित होकर अतिशयों व प्रातिहार्यों से संयुक्त हुए समवसरणस्थ अरहन्त का जो ध्यान करता है वह रूपस्थध्यान कहलाता है (२८)।
ज्ञानार्णव में उसके लक्षण को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि सात धातुओं से रहित ब समस्त अतिशयों से सहित होकर समवसरण में विराजमान प्राद्य (ऋषभ) जिनेन्द्र का जो ध्यान किया जाता है उसका नाम रूपस्थध्यान है (१-८, पृ. ४०६) । आगे वहां पुन: यह कहा गया है कि इस ध्यान में ध्याता को महेश्वर (२७), आदिदेव, अच्युत (२८), सन्मति, सुगत, महावीर (२९) और वर्धमान (३०) आदि अनेक सार्थक पवित्र नामों से उपलक्षित सर्वज्ञ वीर देव का स्मरण करना चाहिए (पृ. ४११-१२)।
भावसंग्रह में उस स्पस्थध्यान के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-स्वगत रूपस्थध्यान और परमत रूपस्थध्यान । जिसमें पांच परमेष्ठियों का चिन्तन किया जाता है वह परगत रूपस्थध्यान कहलाता है तथा जिसमें अपने शरीर के बाहिर स्थित तेजपुंज स्वरूप अपनी प्रात्मा का चिन्तन किया जाता है वह स्वगत रूपस्थध्यान कहलाता है (६२४-२५)।
द्रव्यसंग्रह की टीका में चिद्रूप के चिन्तन को रूपस्थध्यान का लक्षण कहा गया है।
अमितगति-श्रावकाचार में प्रतिमा में आरोपित परमेष्ठी के स्वरूप के चिन्तन को रूपस्थध्यान कहा गया है (१५-५४) ।
योगशास्त्र में रूपस्थध्यान के स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि छत्रत्रय आदि रूप प्रातिहार्यों से सम्पन्न व समस्त अतिशयों से युक्त होकर समवसरण में स्थित प्ररहन्त केवली के रूप का जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थध्यान कहते हैं (8, १-७) । अथवा राग, द्वेष एवं मोहादि विकारों से रहित जिनेन्द्रप्रतिमा के रूप का भी जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थध्यान जानना चाहिए (६, ८-१०)।
वसुनन्दि-श्रावकाचार में रूपस्थध्यान के प्रसंग में यह कहा गया है कि पाठ प्रातिहार्यों से सहित व अनन्त ज्ञानादि से विभूषित होकर समवसरण में स्थित अरहन्त प्रभु का जो ध्यान किया जाता है उसका नाम रूपस्थध्यान है । अथवा उपर्युक्त गुणों से मण्डित होकर परिवार (समवसरण) से रहित हुए जिनका समस्त शरीर क्षीरसमुद्र की जलधारा से धवल वर्ण को प्राप्त है ऐसे सर्वज्ञ जिनका जो विचार किया जाता है उसे रूपस्थध्यान जानना चाहिये (४७२-७५) ।
ध्यानस्तव में रूपस्थध्यान के प्रसंग में यह कहा गया है कि ध्याता एकाग्रचित्त होकर जो जिनदेव के नामपदरूप मंत्र का जाप करता है वह रूपस्थध्यान कहलाता है। अथवा ध्याता प्रातिहार्यों आदि से विभूषित निर्मल अरहन्त प्रभु का जो भिन्नरूप में ध्यान करता है उसे रूपस्थध्यान जानना चाहिए (३०-३१)। रूपातीत
भावसंग्रह में रूपातीतध्यान के प्रसंग में यह कहा गया है कि जिस ध्यान में ध्याता न शरीर में १. रूपस्वं सर्वचिद्रूपंxxx॥ब. द्रव्यसं. टीका ४८ में उद्धृत ।