Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
तत्त्वार्थवार्तिक में धर्म्यध्यान के स्वामियों का पृथक से स्पष्ट निर्देश तो उस प्रसंग में नहीं किया गया, जैसा कि सर्वार्थसिद्धि में किया गया है। परन्तु वहां शंका के रूप में यह कहा गया है कि उक्त धर्म्यध्यान अप्रमत्तसंयत के होता है। उसका समाधान करते हुए यह कहा गया है कि ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि बैसा स्वीकार करने पर अप्रमत्त के पूर्ववर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि आदि तीन गुणस्थानों में उसके अभाव का प्रसंग दुनिवार होगा। पर सम्यक्त्व के प्रभाव से इन तीन गुणस्थानों में भी वह होता है। इसके बाद वहां यह दूसरी शंका उठायी गई है कि उक्त धर्म्यध्यान पूर्व गुणस्थानवतियों के ही नहीं, बल्कि उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के भी होता है । इस शंका के समाधान में कहा गया है कि यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि बैसा स्वीकार करने पर इन दो गुणस्थानों में जो शुक्लध्यान का अस्तित्व स्वीकार किया गया है उसके वहां अभाव का प्रसंग प्राप्त होगा। इस पर यदि यह कहा जाय कि उनके धर्म्य और शुक्ल ये दोनों ही ध्यान हो सकते हैं, तो यह भी संगत नहीं है। क्योंकि पूर्व (धर्म्य) ध्यान उनके नहीं माना गया है। आर्ष में उसे उपशमक और क्षपक दोनों श्रेणियों में नहीं माना जाता, किन्तु उनके पूर्ववर्ती गुणस्थानों में माना जाता है। यहां अगले सूत्र (६-३७) की उत्थानिका में यह सूचना अवश्य की गई है कि वह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतों के होता है।
धवला में जो प्रकृत धर्म्यध्यान के स्वामिविषयक उल्लेख किया गया है वह बहुत स्पष्ट है। वहां यह शंका उठायी गई है कि धर्म्यध्यान सकषाय जीवों में ही होता है, यह कैसे जाना जाता है ? इस शंका के समाधान में यह कहा गया है कि धर्म्यध्यान की प्रवृत्ति असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वसंयत, अनिवृत्तिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकों व उपशमकों में होती है। इस जिन देव के उपदेश से वह जाना जाता है।
हरिवंशपुराण में उक्त घHध्यान के स्वामियों के प्रसंग में इतना मात्र कहा गया है कि प्रमाद के अभाव में उत्पन्न होने वाला वह अप्रमत्तगुणस्थानभूमिक है-अप्रमत्तगुणस्थान तक होता है। यहां यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि वह प्रथम से सातवें गुणस्थान तक होता है, अथवा चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है, अथवा एक मात्र सातवें गुणस्थान में ही होता है। यहां पूर्व में प्रार्तध्यान के प्रसंग में भी 'षड्गुणस्थानभूमिक' (५६-१८) ऐसा निर्देश करके उसका अस्तित्व प्रथम से छठे गुणस्थान तक प्रगट किया गया है।
आदिपुराण में उक्त धर्म्यध्यान की स्थिति को प्रागमपरम्परा के अनुसार सम्यग्दृष्टियों, संयतासंयतों और प्रमत्तसंयतों में स्वीकार करते हुए उसका परम प्रकर्ष अप्रमत्तों में माना गया है।
तत्त्वानुशासन में धर्म्यध्यान के स्वामियों के प्रसंग में प्रथमतः यह निर्देश किया गया है कि तत्त्वार्थ में उसके स्वामी अप्रमत्त, प्रमत्त, देशसंयत और सम्यग्दृष्टि ये चार माने गये हैं। तदनन्तर बहां उक्त धर्म्यध्यान को मुख्य और उपचार के भेद से दो प्रकार का बतलाते हुए यह कहा गया है कि मुख्य धर्म्यध्यान अप्रमत्तों में और औपचारिक इतरो में-सम्यग्दष्टि, देशसंयत और प्रमत्तसंयतों में होता है।
१. त. वा. ६, ३६, १४-१६. २. असंजदसम्मादिदि-संजदासंजद-पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुव्वसंजद-अणियट्टिसंजद - सुहुमसापराइय - ___खवगोवसामएस धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि त्ति जिणोवएसादो । धव, पु. १३, पृ. ७४. ३. अप्रमत्तगुणस्थानभूमिकं ह्यप्रमादजम् । पीत-पद्मलसल्लेश्याबलाधानमिहाखिलम् ॥ ह. पु. ५६-५१. ४. आ. पु. २१, १५५-५६. ५. 'तत्त्वार्थ' से क्या अभिप्रेत रहा है, यह वहां स्पष्ट नहीं है। स्व. श्री पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने
उसके भाष्य में 'तत्त्वार्थ' शब्द से 'तत्त्वार्थवातिक' को ग्रहण किया है। पृ. ४६. ६. अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सदष्टिर्देशसंयतः । धर्म्यध्यानस्य चत्वारस्तत्त्वार्थे स्वामिनः स्मृताः ॥ ४६. मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानमिह द्विधा । अप्रमत्तेषु तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ॥ ४७.