Book Title: Dhyanashatakam Part 1
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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८०
रे
ग्रन्थ का विषय
[પેજ નં. ૮૦થી શરૂ કરી પેજ નં. ૮૭ સુધીનું લખાણ પં. બાલચન્દ્રશાસ્ત્રી સંપાદિત
'ध्यानशत-ध्यानस्तव' पुस्तभांथी सालार सेवामां आव्युं छे. - संपा. ]
I
ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए मंगल के पश्चात् सर्वप्रथम स्थिर अध्यवसान को ध्यान का स्वरूप बतलाया है । स्थिर अध्यवसान से एकाग्रता का आलम्बन लेनेवाले मन का अभिप्राय रहा है, जिसे दूसरे शब्दों में एकाग्रचिन्तानिरोध कहा जा सकता है । इसके विपरीत जो अध्यवसान की अस्थिरता है उसे चल चित्त कहकर भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता इन तीन में विभक्त किया गया है । उनमें ध्यान के अभ्यास की क्रिया का नाम भावना है । ध्यान से च्युत होने पर जो चित्त की चेष्टा होती है उसे अनुप्रेक्षा कहा जाता है । भावना और अनुप्रेक्षा इन दोनों से भिन्न जो मन की प्रवृत्ति होती है वह चिन्ता कहलाती है ( गा. २) ।
एक वस्तु में चित्त के अवस्थान रूप उस ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है । इस प्रकार का ध्यान केवली से भिन्न छद्मस्थ (अल्पज्ञ) जीवों को ही होता है, केवलियों का ध्यान योगों के निरोध स्वरूप है (३) । अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ध्यान के विनष्ट हो जाने पर या तो पूर्वोक्त स्वरूपवाली चिन्ता होती है, या फिर भावना और अनुप्रेक्षा रूप ध्यानान्तर होता है । यह ध्यानान्तर तभी सम्भव है जब कि उसके पश्चात् पुनः स्थिर अध्यवसान रूप वह ध्यान होनेवाला हो, अन्यथा उस प्रकार का ध्यानान्तर न होकर चिन्ता ही हो सकती है (३-४) ।
आर्तध्यान
ध्यान सामान्य से चार प्रकार का है - आर्त, रौद्र, धर्म या धर्म्य और शुक्ल । इनमें आर्त और रौद्र ये दो ध्यान संसार के कारण हैं तथा धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान मुक्ति के कारण हैं । विशेष रूप से आर्तध्यान को तिर्यंच गति का, रौद्रध्यान को नरक गति का, धर्मध्यान को देव गति का और शुक्लध्यान को मुक्ति का कारण माना गया है (५) ।
ध्यानशतकम्,
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अनिष्ट विषयों का संयोग होने पर उनके वियोग की जो चिन्ता होती है तथा उनका वियोग हो जाने पर भी जो भविष्य में उनके पुनः संयोग न होने की चिन्ता होती है, उसे प्रथम आर्तध्यान माना गया है । रोगजनित पीडा के होने पर उसके वियोग की चिन्ता के साथ भविष्य में उसके पुनः संयोग न होने की भी जो चिन्ता होती है, उसे दूसरा आर्तध्यान कहा गया है। अभीष्ट विषयों का संयोग होने पर उनका भविष्य में कभी वियोग न होने विषयक तथा वर्तमान में यदि उनका संयोग नहीं है तो उनकी प्राप्ति किस प्रकार से हो, इसके लिए भी जो चिन्ता होती है उसे तीसरा आर्तध्यान माना जाता है । यदि संयम का
१. (क) अनेन किलानागतकालपरिग्रह इति वृद्धा व्याचक्षते । हरि. टी. गा. ८.
(ख) अन्ये पुनरिदं गाथाद्वयं चतुर्भेदमप्यार्तध्यानमधिकृत्य साधोः प्रतिषेधरूपतया व्याचक्षते । टी. १२. (ग) अन्ये तु व्याचक्षते तिर्यग्गतावेव प्रभूतसत्त्वसम्भवात् स्थितिबहुत्वाच्च संसारोपचारः । टीका १३. (घ) आदिशब्दः xxx प्रकृति-स्थित्यिनुभाव- प्रदेशबन्धभेदग्राहक इत्यन्ये । टीका ५०.
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