Book Title: Dhyanashatakam Part 1
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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ध्यानशतक व आदिपुराण का ध्यानप्रकरण
११९ Parakatarekararararararararararararararakararakataranakaratakararakararararaks संयतासंयतों व प्रमत्तसंयतों में भी जानना चाहिए । आगे लेश्या का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि वह प्रकृष्ट शुद्धि को प्राप्त तीन लेश्याओं से वृद्धिंगत होता है। __तपश्चात् वहां धर्मध्यान में सम्भव क्षायोपशमिक भाव का निर्देश करते हुए उसके अभ्यन्तर व बाह्य चिन्हों (लिंगों) की सूचना की गई है । उसका फल पाप कर्मों की निर्जरा और पुण्योदय से प्राप्त होनेवाला देवसुख बतलाया है । साथ ही वहां यह भी कहा गया है कि उसका साक्षात् फल स्वर्ग की प्राप्ति और पारम्परित मोक्ष की प्राप्ति है । इस ध्यान से च्युत होने पर मुनि को अनुप्रेक्षाओं के साथ भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए, जिससे संसार का अभाव किया जा सके ।
ध्यानशतक में जिन भावनादि १२ अधिकारों के आश्रय से धर्मध्यान की प्ररूपणा की गई है उनमें उसके स्वामी, लेश्या और फल आदि का भी क्रमानुसार विवेचन किया गया है । स्वामी के विषय में प्रकृत दोनों ग्रन्थों में कुछ मतभेद रहा है । यथा
ध्यानशतक में प्रकृत धर्मध्यान के ध्याता का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि सब प्रमादों से रहित मुनि तथा उपशान्तमोह और क्षीणमोह उसके ध्याता होते है । उपशान्तमोह और क्षीणमोह का अर्थ हरिभद्रसूरि ने उसकी टीका में क्रमशः उपशामक निर्ग्रन्थ और क्षपक निर्ग्रन्थ किया है । अभिप्राय उसका यह प्रतीत होता है कि उक्त धर्मध्यान सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान तक होता
परन्तु आदिपुराण में, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, उक्त धर्मध्यान के स्वामित्व का विचार करते हुए उसका सद्भाव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक ही बतलाया गया है । यह अवश्य विचारणीय है कि वहां वह अप्रमत्त दशा का आलम्बन लेकर अप्रमत्तों में परम प्रकर्ष को प्राप्त होता है' यह जो कहा गया है उसका अभिप्राय क्या सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से ही रहा है या आगे के कुछ अन्य अप्रमत्तों से भी । आगे वहां यह भी कहा गया है कि आगम परम्परा के अनुसार वह सम्यग्दृष्टियों, संयतासंयतों और प्रमत्तसंयतों में भी होता है । यह मान्यता सर्वार्थसिद्धिकार और तत्त्वार्थवार्तिककार की रही है । शुक्लध्यान__ शुक्लध्यान का निरूपण करते हुए आदिपुराण में आम्नाय के अनुसार उसके शुक्ल और परमशुक्ल ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । उनमें छद्मस्थों के शुक्ल और केवलियों के परमशुक्ल कहा गया है । इन भेदों का संकेत ध्यानशतक में भी उपलब्ध होता है, पर वहां परमशुक्ल से समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती
१. आ. पु. २१, १५५-५६ । ३. ध्या. श. ६३, ५. आ. पु. २१, १५५-५६,
२. आ. पु. २१, १५७-६४, ४. क्षीणमोहाः क्षपकनिर्ग्रन्था;, उपशान्तमोहा; उपशामकनिर्ग्रन्थाः ।
६. स. सि. ९-३६; त. वा. ९, ३६, १३-१५,
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