Book Title: Dhyanashatakam Part 1
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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ध्यानशतक व आदिपुराण का ध्यानप्रकरण
११७ Paramataramaraksaradasatararararararamaratarraastaarararsatarararararan
पूर्वोक्त ध्याता की प्ररूपणा में वहां यह कहा गया है कि जिन ज्ञान-वैराग्य भावनाओं का पूर्व में कभी . चिन्तन नहीं किया गया है उनका चिन्तन करनेवाला मुनि ध्यान में स्थिर रहता है । वे भावनायें ये हैं-ज्ञानभावना, दर्शनभावना, चारित्रभावना और वैराग्य भावना । इन चारों भावनाओं के स्वरूप का भी वहां पृथक् पृथक् निर्देश किया गया है । __इस कथन का आधार भी ध्यानशतक रहा है । वहां धर्मध्यान के बारह अधिकारों में प्रथम अधिकार भावना ही है । इस प्रसंग में निम्न गाथा और श्लोक की समानता देखिये
पुवकयन्भासो भावणाहि झाणस्स जोग्गयमुवेइ । ताओ य णाण-दंसण-चरित्त-वेरग्गजणियाओ ।। ध्या. श. ३० भावनाभिरसंमूढो मुनिानस्थिरीभवेत् ।
ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वैराग्योपगताश्च ताः ।। आ. पु. २१-९५ ___ इस प्रसंग में आदिपुराणकार ने वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षण, परिवर्तन और सद्धर्मदेशन इनको ज्ञानभावना कहा है । ध्यानशतककार ने इन्हें धर्मध्यान के आलम्बनरूप से ग्रहण किया है । ज्ञानभावना का स्वरूप दिखलाते हुए ध्यानशतक में यह कहा गया है कि ज्ञान के विषय में किया जानेवाला नित्य अभ्यास मन के धारण-अशुभ व्यापार को रोककर उसके अवस्थान-को तथा सूत्र व अर्थ की विशुद्धि को भी करता है । जिसने ज्ञान के आश्रय से जीव-अजीवादि सम्बन्धी गुणों की यथार्थता को जान लिया है वह अतिशय स्थिरबुद्धि होकर ध्यान करता है ।
३ धर्मध्यान
___ ध्यानशतक में धर्मध्यान की प्ररूपणा करते हुए उस पर आरूढ होने के पूर्व मुनि को किन किन बातों का जान लेना आवश्यक है, इसका निर्देश करते हुए प्रथमतः भावना आदि बारह अधिकारों की सूचना की गई है।
उनमें से आदिपुराण में ध्यानसामान्य से सम्बद्ध परिकर्म के प्रसंग में, जेसा कि ऊपर कहा जा चुका है; देश, काल, आसनविशेष और आलम्बन की जो प्ररूपणा की गई है वह ध्यानशतक से बहुत कुछ प्रभावित है ।
ध्यानशतक में ध्यातव्य का निरूपण करते हुए ध्यान के विषयभूत (ध्येय स्वरूप) आज्ञा, अपाय, विपाक और द्रव्यों के लक्षण-संस्थानादि इन चार की प्ररूपणा की गई हैं ।
१. आ. पु. २१, ९४-९९.
२. आ. पु. २१-९६, ३. ध्या. श. ४२ ।
४. ध्या. श. ३१, ५. आ. पु. २१, ५७-५८ व ७६-८०, ६. आ. पु. २१, ८१-८३, ७. आ. पु. २१, ५९-७५,
८. आ. पु. २१-८७, ९. ध्या. श. आज्ञा ४५-४९, अपाय ५०, विपाक ५१, संस्थान ५२-६०,
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