Book Title: Dhyanashatakam Part 1
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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ध्यान के स्वामी
रेवरेकर
24.
ज्ञानार्णव में अप्रमत्त और ये दो मुनि उसके स्वामी माने गये हैं । मतान्तर से वहां उसका अस्तित्व सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में प्रगट किया गया है ।
ध्यानस्तव में असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में उसके अस्तित्व को सूचित करते हुए सम्भवतः यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि प्रकृत धर्म्यध्यान ही अतिशय विशुद्धि को प्राप्त होकर शुक्लध्यानरूपता को प्राप्त होता हुआ दोनों श्रेणियों में भी रहता है । इस प्रकार से ध्यानस्तवकार सम्भवतः प्रकृत धर्म्यध्यान हो असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषाय व क्षीणकषाय तक स्वीकार करते हैं, अथवा शुक्लध्यान को वे दोनों श्रेणियों के अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में स्वीकार करते हैं । प्रसंग प्राप्त श्लोक १६ का जो पदविन्यास है उससे ग्रन्थकार का अभिप्राय सहसा विदित नहीं होता है ।
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शुक्लध्यान-सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ: अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में पूर्व के दो शुक्लध्यान श्रुतकेवली के
अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली के स्वीकार किये गये हैं । सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक के स्पष्टीकरण के अनुसार उपशमक और क्षपक इन दोनों श्रेणियों में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तमोह इन चार उपशामकों के तथा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्यराय और क्षीणमोह इन चार क्षपकों के-क्रम से वे पूर्व के दो शुक्लध्यान होते हैं ।
तत्त्वार्थ भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में पूर्व के दो शुक्लध्यान धर्मध्यान के साथ उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के तथा अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली के निर्दिष्ट किये गये हैं । अभिप्राय ध्यानशतककार का भी रहा दिखता है ।
धवलाकार के अभिप्रायानुसार प्रथम शुक्लध्यान उपशान्तकषाय के, द्वितीय क्षीणकषाय के, तृतीय सूक्ष्म काययोग में वर्तमान संयोग केवली के और चतुर्थ शैलेश्य अवस्था में अयोग केवली के होता है । आदिपुराणकार और ज्ञानार्णव के कर्ता का भी यही अभिमत रहा है ।
हरिवंशपुराणकार के अभिमतानुसार प्रथम शुक्लध्यान दोनों श्रेणियों के गुणस्थानों में, द्वितीय सम्भवतः बादर योगों के निरोध होने तक सयोग केवली के, तृतीय सूक्ष्म उपयोग में वर्तमान सयोग केवली के और चतुर्थ अयोगी जिनके होता है ।
बृहद्रव्यसंग्रह टीका के अनुसार प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणि के अपूर्वकरण उपशमक, अनिवृत्ति उपशमक, सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक और उपशान्तकषाय पर्यन्त चार गुणस्थानों में तथा क्षपक श्रेणिके अपूर्वकरण क्षपक, अनिवृत्तिकरण क्षपक और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक इन तीन गुणस्थानों में होता है । दूसरा शुक्लध्यान क्षीणकषाय गुणस्थान में, तीसरा उपचार के सयोगिकेवली जिनके और चोथा शुक्लध्यान उपचार से अयोगिकेवली जिनके होता है (गा. ४८, पृ. १७६-७७) ।
ध्यानस्तवकार के मतानुसार अतिशय विशुद्ध धर्म्यध्यान रूप शुक्लध्यान दोनों श्रेणियों में रहता है । प्रथम शुक्लध्यान तीन योगोंवाले पूर्ववेदी के द्वितीय एक योगवाले पूर्व वेदी के तृतीय सूक्ष्म काययोग की क्रिया से युक्त सयोग केवली के और चतुर्थ अयोगी जिनके होता है ।
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