Book Title: Dhyanashatakam Part 1
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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ध्यानशतक और तत्त्वार्थसूत्र
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है कि एक वस्तु में जो चित्त का अवस्थान-चिन्ता का निरोध है-उसे ध्यान कहा जाता है और वह अन्तर्मुहूर्त मात्र रहता है । तत्त्वार्थसूत्र में जहां उसके स्वामी का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि वह उत्तम संहनन वाले के होता है वहां ध्यानशतक में उसे और अधिक स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि इस प्रकार का वह ध्यान छद्मस्थों के-केवली से भिन्न अल्पज्ञ जीवों के-हीं होता है । केवलियों का वह ध्यान स्थिर अध्यवसानरूप न होकर योगों के निरोध स्वरूप है । इसका कारण यह है कि उनके मन का अभाव हो जाने से चिन्ता निरोधरूप ध्यान सम्भव नहीं है । अब रह जाती है संहनन के निर्देश की बात, सो उसका निर्देश ध्यानशतक में आगे जाकर शुक्लध्यान के प्रसंग में किया गया है ।
२ तत्त्वार्थसूत्र में जो अन्तिम दो ध्यानों को-धर्म और शुक्लध्यान को-मोक्ष का कारण निर्दिष्ट किया गया है उससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि पूर्व के दो ध्यान-आर्त और रौद्र-मोक्ष के कारण नहीं हैं, किन्तु संसार के कारण है। यह सूचना ध्यानशतक में स्पष्टतया शब्दों द्वारा ही कर दी गई है ।
३ तत्त्वार्थसूत्र में जहां अमनोज्ञ पदार्थ का संयोग होने पर उसके वियोग के लिए होनेवाले चिन्ताप्रबन्ध को प्रथम आर्तध्यान कहा गया है वहां ध्यानशतक में उसे कुछ और भी विकसित करते हुए यह कहा गया है कि अमनोज्ञ शब्दादि विषयों और उनकी आधारभूत वस्तुओं के वियोगविषयक तथा भविष्य में उनका पुनः संयोग न होने विषयक भी जो चिन्ता होती है, यह प्रथम आर्तध्यान का लक्षण है । इसी प्रकार से यहां शेष तीन आर्तध्यानों के भी लक्षणों को विकसित किया गया है ।
४ तत्त्वार्थसूत्र में सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार मनोज्ञ पदार्थो का वियोग होने पर उनके संयोगविषयक चिन्तन को दूसरा और वेदनाविषयक चिन्तन को तीसरा आर्तध्यान सूचित किया गया है । इसके विपरीत ध्यानशतक में शूलरोगादि वेदनाविषयक आर्तध्यान को दूसरा और इष्ट विषयादिकों की वेदना (अनुभवन) विषयक चिन्तन को तीसरा आर्तध्यान कहा गया है । यह कथन तत्त्वार्थधिगमसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार उसके विपरीत नहीं है । ५ अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयम इन गुणस्थानों में उक्त आर्तध्यान की सम्भावना जैसे तत्त्वार्थसूत्र
१. ध्या. श. २-३ । २. ध्या. श. ६४ । ३. त.सू. ९-२९ (परे मोक्षहेतू इति वचनात् पूर्वे आर्त-रौद्रे संसारहेतू इत्युक्तं भवति-स. सि. ९-२९ । ४. ध्या. श. ५ । ५. त. सू. ९-३०; ध्या. श. ६ । ६. त सू. ९, ३१-३३; ध्या. श. ७-९ । ७. विपरीतं मनोज्ञस्य । वेदनायाश्च । त. सू. ९, ३१-३२ । ८. ध्या. श. ७-९ । ९. वेदनायाश्च । विपरीतं मनोज्ञानाम् । त. सू. ९, ३२-३३ ।
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