Book Title: Dhyanashatakam Part 1
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
View full book text
________________
ध्यानशतकम्,
११४ Pakarakaraarakararararatstakestantarawasannadatarashatararararate
ध्यानशतक व आदिपुराण का ध्यानप्रकरण आचार्य जिनसेन (९वीं शती) द्वारा विरचित महापुराण एक पौराणिक ग्रन्थ है । वह आदिपुराण और उत्तरपुराण इन दो भागों में विभक्त है । राजा श्रेणिक के प्रश्न पर गौतम गणधर ने जो उसके लिए ध्यान का व्याख्यान किया था उसकी चर्चा करते हुए आदिपुराण के २१वें पर्व में जो विस्तार से ध्यान का निरूपण किया गया है वह ध्यानशतक से काफी प्रभावित दिखता है । इन दोनों की विवेचनपद्धति में बहुत कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है । इतना ही नहीं, आदिपुराण में वहां ऐसे कितने ही श्लोक भी उपलब्ध होते हैं जो ध्यानशतक की गाथाओं के छायानुवाद जैसे है । इसका स्पष्टीकरण आगे यथाप्रसंग किया जाने वाला है । यथा
ध्यानशतक में मंगल के पश्चात् सर्वप्रथम ध्यान का स्वरूप दिखलाते हुए यह कहा गया है कि जो स्थिर अध्यवसान या एकाग्रता युक्त मन है उसका नाम ध्यान है । इसके विपरीत जो अनवस्थित (अस्थिर) चित्त है वह भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता के भेद से तीन प्रकार का है । एक वस्तु में चित्त के अवस्थानरूप वह ध्यान अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है और वह छद्मस्थों के ही होता है । जिनों का-सयोग केवली और अयोगी केवली का-ध्यान स्थिर अध्यवसानरूप न होकर योगों के निरोध स्वरूप है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ध्यानकाल के समाप्त हो जाने पर चिन्ता अथवा ध्यानान्तर-अनुप्रेक्षा या भावनारूप चिन्तन-होता है । इस प्रकर से बहुत वस्तुओं में संक्रमण के होने पर ध्यान का प्रवाह चलता रहता है। ___ यही बात आदिपुराण में भी इस प्रकार से कही गई है -एक वस्तु में जो एकाग्रतारूप से चिन्ता का निरोध होता है वह ध्यान कहलाता है और वह जिसके वज्रर्षभनाराचसंहनन होता है उसके अन्तर्मुहूर्त काल तक ही होता है । जो स्थिर अध्यवसान है उसका नाम ध्यान है और इसके विपरीत जो चलाचल चित्त है-चित्त की अस्थिरता है-उसका नाम अनुप्रेक्षा, चिन्ता अथवा भावना है । पूर्वोक्त लक्षणरूप वह ध्यान छद्मस्थों के होता है तथा विश्वदृश्वा-सर्वज्ञ जिनों के जो योगास्रव का निरोध होता है उसे उपचार से ध्यान माना गया है । समानता के लिए दोनों के इन पद्यों को देखिये
जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता ।। ध्या. श. २ स्थिरमध्यवसानं यत् तद् ध्यानं यच्चलाचलम् ।
सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा ।। आ. पु. २१-६ ध्यान के भेद
आगे ध्यानशतक में आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन ध्यान के चार भेदों का निर्देश करते हुए उनमें अन्तिम दो ध्यानों को निर्वाण का साधक तथा आर्त व रौद्र इन दो को संसार का कारण कहा गया है । १. ध्या. श. २-४ । २. आ. पु. २१, ८-१०, ३. ध्या. श. ५,
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org