Book Title: Dhyanashatakam Part 1
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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ध्यानशतकम्,
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ध्यानशतक का तुलनात्मक अध्ययन
Xx X अब आगे हम प्रस्तुत ध्यानशतक पर पूर्ववर्ती कौन से जैन ग्रन्थों का कितना प्रभाव रहा है, इसका कुछ विचार करेंगे
ध्यानशतक और मूलाचार
आचार्य वट्टकेर (सम्भवतः प्र. - द्वि. शती) विरचित मूलाचार यह एक मुनि के आचार विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । वह बारह अधिकारों में विभक्त है । उसके पंचाचार नामक पांचवें अधिकार में तप आचार की प्ररूपणा करते हुए अभ्यन्तर तप के जो छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं उनमें पांचवां ध्यान है । इस ध्यान की वहां संक्षेप में (गा. १९७ - २०८) प्ररूपणा की गई है । वहां सर्वप्रथम ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार भेदों का निर्देश करते हुए उनमें आर्त और रौद्र इन दो को अप्रशस्त तथा धर्म और शुक्ल इन दो को प्रशस्त कहा गया है (१९७) । आगे उन चार ध्यानों के स्वरूप को यथाक्रम से प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि अमनोज्ञ (अनिष्ट) के संयोग, इष्ट के वियोग, परीषह ( क्षुधादि की वेदना) और निदान के विषय में जो कषाय सहित ध्यान (चिन्तन) होता है उसे आर्तध्यान कहते हैं ( १९८) । चोरी, असत्य, संरक्षण- विषयभोगादि के साधनभूत धनादि के संरक्षण - और छह प्रकार के आरम्भ के विषय में जो कषायपूर्ण चिन्तन होता है उसे रौद्रध्यान कहा जाता है (१९९) । उपर्युक्त आर्त और रौद्र ये दोनों ध्यान चूकि सुगति-देवगति व मुक्ति की प्राप्ति में बाधक है, अत एव यहां उन्हें छोडकर धर्म और शुक्ल ध्यान में उद्यत होकर मन की एकाग्रतापूर्वक उनके चिन्तन की प्रेरणा की गई है । ( २००-२०१) ।
आगे क्रम प्राप्त धर्मध्यान के आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन चार भेदों का निर्देश करते हुए पृथक् उनके स्वरूप को भी प्रगट किया गया है । अन्तिम संस्थानविचय के प्रसंग में यह भी कहा गया है कि धर्मध्यानी यहां अनुगत अनुप्रेक्षाओं का भी विचार करता है । तदनन्तर उन बारह अनुप्रेक्षाओं के नामों का निर्देश भी किया गया है ( २०१-२०६) ।
तत्पश्चात् शुक्लध्यान के प्रसंग में यहां इतना मात्र कहा गया है कि उपशान्तकषाय पृथक्त्ववितर्कविचार ध्यान का, क्षीणकषाय एकत्व - वितर्क - अवीचार ध्यान का, सयोगी केवली तीसरे सूक्ष्मक्रिय शुक्लध्यान का और अयोगी केवली समुच्छिन्नक्रिय का चिन्तन करता है ( २०७-२०८) ।
मूलाचार में जहां प्रसंग प्राप्त इस ध्यान की संक्षेप में प्ररूपणा की गई है वहां ध्यान विषयक एक स्वतंत्र ग्रन्थ होने से ध्यानशतक में उसकी विस्तार से प्ररूपणा की गई है । दोनों में जो कुछ समानता व असमानता है वह इस प्रकार है
मूलाचार में सामान्य से चार ध्यानों के नामों का निर्देश करते हुए आर्त व रौद्र को अप्रशस्त और धर्म व शुक्ल को प्रशस्त कहा गया है ( ५- १९७) । इसी प्रकार ध्यानशतक में भी उक्त चार ध्यानों के नाम का निर्देश करतो हुए उनमें अन्तिम दो ध्यानों को मुक्ति के साधनभूत तथा आर्त व रौद्र इन दो को संसार का कारणभूत कहा गया है (५) । यही उनकी अप्रशस्तता और प्रशस्तता है ।
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