Book Title: Dhyanashatakam Part 1
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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ध्यानशतकम्, Panastaraanaanaantaraaaaaaaantaratarnatantanatantana है तथा असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत इन तीन में वह गौण होता है । आगे यहां यह भी कहा गया है कि अतिशय विशुद्धि को प्राप्त वह धर्म्यध्यान ही शुक्लध्यान होता हुआ दोनों श्रेणियों में होता है (१५-१६) । तत्त्वानुशासन में जहां ‘इतरेषु' पद के द्वारा असंयतसम्यग्दृष्टि आदि तीन का संकेत किया गया है वहां प्रकृत ध्यानस्तव में कुछ स्पष्टता के साथ 'प्रमत्तादित्रये' पद के द्वारा उन तीन प्रमत्तसंयत, संयतासंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि-की सूचना की गई है ।
इस प्रकार धर्म्यध्यान के स्वामियों के विषय में पर्याप्त मतभेद रहा है । अधिकांश ग्रन्थकारों ने उसे स्पष्ट न करके उसके प्रसंग में प्रायः उन्हीं शब्दों का उपयोग किया है, जो पूर्व परम्परा में प्रचलित रहे हैं । शुक्लध्यान__ शुक्लध्यान के स्वामियों के प्रसंग में तत्त्वार्थ सूत्र में यह निर्देश किया गया है कि प्रथम दो शुक्लध्यान श्रुतकेवली के और अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली के होते है । सूत्र में उपयुक्त 'च' शब्द के आश्रय से सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि श्रुतकेवली के पूर्व के दो शुक्लध्यानों के साथ धर्म्यध्यान भी होता है । विशेष इतना है कि श्रेणि चढने के पहिले धर्म्यध्यान और दोनों श्रेणियों में वे दो शुक्लध्यान होते है । __तत्त्वार्थधिगमभाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के धर्म्यध्यान के साथ आदि के दो शुक्लध्यान भी होते है । यहां भाष्य में यह विशेष सूचना की गई है कि आदि के वे दो शुक्लध्यान पूर्ववेदी के-श्रुतकेवली के-होते है । सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार जहां 'पूर्ववित्' शब्द को मूल सूत्र में ही ग्रहण किया गया है वहां भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार उसे मूल सूत्र में नहीं ग्रहण किया गया है, पर उसकी सूचना भाष्यकार ने कर दी है । अन्तिम दो शुक्लध्यान यहां भी केवली के अभीष्ट है ।
ध्यानशतक में भी यही अभिप्राय प्रगट किया गया है कि पूर्व दो शुक्लध्यानों के ध्याता उपशान्तमोह और क्षीणमोह तथा अन्तिम दो शुक्लध्यानों के ध्याता सयोग केवली और अयोग केवली होते हैं (६४) ।
धवला के अनुसार पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान का ध्याता चौदह, दस अथवा नौ पूर्वो का धारक तीन प्रकार के प्रशस्त संहननवाला उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ होता है तथा द्वितीय १. शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः । परे केवलिनः । त. सू. ६, ३७-३८ । २. च-शब्देन धर्म्यमपि समुच्चीयते । तत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति श्रेण्यारोहणात् प्राग्धर्म्यम, श्रेण्योः शुक्ले इति व्याख्यायते ।
स. सि. ९-३७; ३. शुक्ले चाद्ये । त. सू. ९-३९ । ४. आधे शुक्ले ध्याने पृथक्त्ववितकैकत्ववितकें पूर्वविदो भवतः। त. भाष्य ९-३६ । ५. परे केविनः । त. सू. ९-४० । ६. घव. पु. १३, पृ. ७८ ।
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