Book Title: Dhyanashatakam Part 1
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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ग्रन्थ का विषय Nakarakarsakasranatakaratatatataranakarararararararararararakarakarakarate शब्दार्थबहुतता और जिनचन्द्रागम; इन हेतुओं के द्वारा सयोग और अयोग केवलियों के चित्त का अभाव हो जाने पर भी जीवोपयोग क सद्भाव बना रहने से क्रमशः सूक्ष्मक्रियानिवति और व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ये दो शुक्लध्यान कहे जाते हैं (८४-८६)
८ ध्याता-शुक्लध्यान के ध्याताओं का कथन धर्मध्यान के प्रकरण (६३-६४) में किया जा चुका है । ९ अनुप्रेक्षा-शुक्लध्यानी ध्यान के समाप्त हो जाने पर भी आस्रवद्वारापाय, संसाराशुभानुभाव, अनन्तभवसन्तान और वस्तुविपरिणाम इन चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है (८७-८८)
१० लेश्या-प्रथम दो शुक्लध्यान शुक्ललेश्या में और तीसरा परम शुक्ललेश्या में होता है । चौथा शुक्लध्यान लेश्या से रहित है (८६) ।
११ लिंग-अवध, असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग ये चार शुक्लध्यान के लिंग कहे गये हैं । परीषह और उपसर्ग के द्वारा न ध्यान से विचलित होना और न भयभीत होना, यह अवलिंग है । सूक्ष्म पदार्थों और देवनिर्मित माया में मूढता को प्राप्त न होना, यह असम्मोह का लक्षण है । आत्मा को शरीर से भिन्न समझना तथा सब संयोगों को देखना, इसका नाम विवेक है । निःसंग होकर शरीर और उपधिका परित्याग करना, इसे व्युत्सर्ग कहा जाता है (६०-६२) ।
१२ फल-शुक्लध्यान के फल का विचार करते हुए यहां कहा गया है कि शुभास्रव, संवर, निर्जरा और देवसुख ये जो शुभानुबन्धी धर्मध्यान के फल हैं विशेषरूप से वे ही शुभ आस्रव आदि और अनुपम देवसुख ये प्रथम दो शुक्लध्यानों के फल हैं । अन्तिम दो शुक्लध्यानों का फल निर्वाण की प्राप्ति है (९३-९४) ।
इस प्रकार शुक्लध्यान की प्ररूपणा को समाप्त करते हुए धर्म और शुक्लध्यान निर्वाण के कारण क्यों और किस प्रकार से हैं, इसे विविध दृष्टान्तों द्वारा सिद्ध किया गया है (९५-१०२) ।
अन्त में ध्यान के द्वारा इस लोक सम्बन्धी भी शारीरिक और मानसिक दुःख दूर होते हैं, यह बतलाते हुए सब गुणों के आधारभूत और दृष्ट-अदृष्ट सुख के साधक ऐसे प्रशस्त ध्यान के श्रद्धान, ज्ञान और चिन्तन की प्रेरणा की गई है (१०३-५) ।xxx
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