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धवला उद्धरण
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इन्द्रभूति इस नाम से प्रसिद्ध हुआ।।61 ।।
श्रुत व्याख्याता का भव भ्रमण सेलघण-भग्गघड-अहि-चालणि-महिसाऽवि-जाहय-सुएहि। मट्टिय-मसय-समाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा।।62।। दढ-गारव-पडिबद्धो विसयामिस-विस-वसेण घुम्मंतो। सो भट्ट-बोहि-लाहो भमइ चिरं भव-वणे मूढो।।63।।
शैलघन, भग्नघट, अहि (सर्प), चालनी, महिष, अवि (मेंढ़ा), जाहक (जोंक), शुक, माटी और मशक के समान श्रोताओं को जो मोह से श्रुत का व्याख्यान करता है, वह मूढ़, दृढ़रूप से ऋद्धि आदि तीनों प्रकार के गारवों के अधीन होकर विषयों की लोलुपतारूपी विष के वश से मूर्च्छित हो, बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति से भ्रष्ट होकर भव-वन में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है।।62-63।।
तिविहा य आणुपुव्वी दसहा णामं च छव्विहं माणं। वत्तव्वा य तिविहा तिविहो अत्थाहियारो वि।।64।।
आनपर्वी तीन प्रकार की है. नाम के दश भेद हैं. प्रमाण के छह भेद हैं, वक्तव्यता के तीन भेद हैं और अधिकार के भी तीन भेद हैं।।64।।
एस करेमि य पणमं जिणवर-वसहस्स वड्ढमाणस्स। सेसाणं च जिणाणं सिव-सुह-कंखा विलोमेण।।65।।
मोक्षसुख की अभिलाषा से यह मैं जिनवरों में श्रेष्ठ ऐसे वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करता हूँ और विलोम क्रम से अर्थात् वर्द्धमान के बाद पार्श्वनाथ को, पार्श्वनाथ के बाद नेमिनाथ इत्यादि को क्रम से शेष जिनेन्द्रों को भी नमस्कार करता हूँ।।65।।