Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Jinmandangiri, Chaturvijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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धम्माभासह समाउलम्मि लाए जड़हियं धम्म । आसन्नमाविमा विरल विज के वि पार्वति ॥ २ ॥
RAKASE-5-44
कुप्पवयणपासंडी सचे उम्मग्गपइट्ठिया। सुमग्गं तु जिणक्खायं एस मग्गो हि उत्तमो ॥१॥ धम्माभासहि समाउलम्मि लोए जहटियं धम्मं । आसन्नभाविभहा विरल चिअ के वि पावंति ॥२॥ विरलाण वि ते विरला धम्मविसेसं विआणिउं सम्मं । जं जह भणियं तंतह कुणंति जं देहनिरवक्खा ॥३॥ लौकिकधर्मास्तु पापानुबन्धिपुण्यरूपतया मिथ्याइग्मनःस्पृहणीयसुखहेतवोऽपि कुपथ्याहारवत्परिणामन गुणावहाः। यतः
जिणाणाए कुणताणं नृणं निवाणकारणं । सुंदरंमि सुबुद्धीए सवं भवनिबंधनं ॥१॥ मिच्छद्दिट्ठीण फलं मट्टिअपिंड व विहडए पच्छा । सम्मद्दिट्टीण फलं कंचणकलसोवमं होइ ॥२॥ अहवा तावसपमुहा घोरतवा घोरकट्टकिरिअरया । रज्जाइरिद्धिहेउं सनिआणा रोसकलुसमणा ॥३॥ पुवं लहिऊण सिरिं मुद्धजणाणंददाइणि विविहं । सम्मइंसणमुक्का भमंति हीणासु जोणीसु ॥४॥ सामन्नेणं धम्मो सुरनरसुहकारणं हवइ कमसो। परमत्थधम्महेऊ संसारुवारगो पायं ॥५॥ सामान्यधर्मपूतात्मा प्राणी पुरुषचन्द्रवत् । विशेषधर्मसामग्री प्राप्य स्थाच्छिवशर्मभाग् ॥ ६ ॥ तथाहि
अङ्गाख्यविषये चम्पापुर्या विख्याततेजसः। श्रीनिवासनरेन्द्रस्य चन्द्रावलीतनूद्भवः ॥१॥ सूनुः पुरुषचन्द्राख्यः कलावानमृतद्युतिः । आसीत्कुवलयोल्लासी सदृत्तस्तेजसांनिधिः ॥ २॥ युग्मम् ॥ स पाणौ कृतवान् पुत्रीं पवित्रां
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