Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Jinmandangiri, Chaturvijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 129
________________ मुत्तूण पमायपयं निषाणुद्वाणनिबमजुत्तेणं । तारिसजोगामावे सामाइवमाइ काय ॥ १०॥ यतः अविहिकया वरमकयं उस्सुअवयणं वयंति सबलू । जम्हा पायच्छित्तं जकए गुरुजं कए लहुअं ॥१॥ विहिपुछो जिणधम्मो सुजायरूवं व कम्ममलपसरं । अवहणइ कुणइ सुद्धिं अजिंदणिजो कुतित्थीहिं ॥१०॥ पाणाइवायविरमणपमुहाइ सया महत्वयवयाई। साहूण पंच भणिआ तिविहेण तिदंडविरयाणं ॥ ११ ॥ सम्मइंसणसुद्धो बारसवयपालणेण गिहिधम्मो। जिणपूअणमुणिवंदणसुतित्थसेवाइगुणकलिओ ॥१२॥ पढमो सिवसुहहेऊ सम्मं परिपालिओ ममयरहिओ । सुरमणुअसुक्खबीअं बीओ पजंतसिद्धिकरो ॥ १३॥ नियधम्मसुद्धिहे छबिहावस्सएसु पइदिवसं । साहूण सावयाणं जुत्तो विहिणुजमो सम्मं ॥ १४ ॥ जओ समणेण सावएणं अवस्सकायचयं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसाए तम्हा आवस्सयं नाम ॥१॥ आवस्सएसु जह जह कुणइ पयतं अहीणमहरितं । तिविहकरणोवउत्तो तह तह से निजरा होइ ॥१५॥ तत्र सामायिकादीनां फलम् । यतः-. . यद्वर्षकोटितपसामप्यच्छेद्यं तदप्यहो ।। कर्म निर्मूल्यते चित्तसमत्वेन क्षणादपि ॥१॥ दिवसे दिवसे लक्खं देह सुवनस्स खंडिओ कोइ । एगो पुण सामइयं करेइ न पहुप्पए तस्स ॥ १६ ॥ सुरगिरिइक्कावन्ना सावओ भावओ दियइ दाणं । तस्स न तचिज पुन जचिज सामाइए इके ॥ १७॥ RAATRISANAARAKA

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