Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Jinmandangiri, Chaturvijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 143
________________ कडयं अप्पित्ता अजिवि । दुर्लभः पुरुषो लातुल्यं युधिष्ठिर!। जतो पए पए एसो । सूलारोवणहेडं वहभूमिं निजए पावो ॥ १५८ ॥ करुणारसमरिजंगी तो सोमा जंपए नि-11 दिवइपुरिसे । एवं मुंचह तेणं गिण्हह मह हेमकरकडयं ॥ १५९ ॥ तो रायादेसेणं मुको तेणो नरिंदपुरिसेहिं । सोमाइ हेमकडयं अप्पित्ता अजिवं पुत्रं ॥ १६०॥ यतः हेमधनुर्धरादीनां दातारः सुलमा मुवि । दुर्लभः पुरुषो लोके यः प्राणियमयप्रदः॥१॥ यो दद्यात्काञ्चनं मेरुं कृत्वां चैव वसुन्धराम् । एकस जीवितं दद्यान्न च तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥२॥ पुरओ वचंताणं ताणं नयणंमि आगया एगा। पइमारिय त्ति एसा हीलिजंती जणेहिं वामच्छी॥ १६१ ॥ एवं तीए चरि भणि तेर्सि नरेण इकेण । एसा परपुरिसेणं रत्ता बलरुबवंतेणं ॥ १६२॥ रत्तीइ मारिऊणं नियदइयं ...................मि किं सुक्खंगं । जं अंगीकयसुहकजपालणं सधसत्तीए ॥२१२॥ एमाइ पुच्छवागरणओ ज तह महवाई जायाई । जह तीइ धम्मविग्धं सयणा न करंति कइया वि ॥ २१३ ॥ स वि तीइ सयणा कमेण धम्मोबएसदाणेण । जिणधम्मरंगवंतो विहिआ सम्मत्तवयवतो ॥२१४ ॥ यतः संखो रंगविहूणो रंगं नो देइ कस्स कइया वि । चुन्नो रंगविमुक्को कत्थ वि मिलिओ जणइ रंग ॥१॥ रंगजुरं परवालं परस्स रंग न देह कइया वि। मंजिहा रंगजुआ अन्नस्स वि रंगमाणेइ ॥२॥ १ अत्र सर्वेष्वप्यादर्शषु पञ्चाशद्दाथाश्रुटितास्सन्ति । ESSASHRESSES RAN%A4%AARAK

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