Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Jinmandangiri, Chaturvijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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धर्मपरीक्षा
प्रथमपरिच्छेदः
EKASIA
जिणा बारस रूवाणि मेरा चउदस रूविषो। अजाणं पणवीसं तु उवही एसो विआहिओ॥१॥ ते जिणघम्मे भणिजा पञ्चविहा आयरिजाइमेएहिं । पञ्चविहं चारित्तं सामाईअमाईअंतेसिं ॥२॥ बारसमे तेसिं कम्मक्खयकारणं तवोकम्मं । बारसपडिमाइ पुणो कहिआ इगराईआईआ ॥३॥
सम्मत्तसुद्धिमूलो सावगधम्मो दुवालसविहो । जिणपूअणमुणिवंदणसुपत्तदाणाइगुणसारो ॥४॥ यतःपूआ जिर्णिदेसु रई वएसु जुत्तो असामाईअपोसहेसु । दाणं सुपत्ते सवणं सुतत्थे सुसाहुसेवा सिवमग्ग एसो॥१॥
अरिहंतचक्कवट्टीअहमिंदपयाईसंपयं पप्प मुणिधम्मरया जीवा लहन्ति सुक्खं निराबाहं ॥ २॥ सावयधम्मफलं पुण पढमं सुरमणुअसंपयाजोगो । सत्तट्ठभवभंतरि नियमेणं होइ सिवसुक्खं ॥३॥ इत्यादिदेशनां तस्स तथा भव्यतया नृपः। शृण्वानः श्रद्दधानव प्रापत्पुण्यमनुत्तरम् ॥ ९७॥ यतःनिअआसयभएणं सुवन्ननिम्मियघडोवमं पुत्रं । निमाणुबंधिफलदाणभेजओ वन्निसमए ॥१॥
जं सका तं कीरइ असकमाणमि होइ सद्दहणा । सद्दहमाणो जीवो पामइ पुन्नं फलं विउलं ॥२॥ मिथ्यात्वमोहनीयस्य कर्मणोऽथ नरेश्वरः। क्षयोपशमतो लेभे श्राद्धधर्म यथोदितम् ॥९८॥ प्रसादं श्रीजिनेन्द्रस्य संमेतशिखरोपरि । रबमाणिक्यगायप्रतिमाभिरलतम् ॥ ९९ ॥ निर्मायं स विनिर्माय तत्र यात्राश्च भूरिशः। विधाय विधिनोपेताः सम्यक्त्वं निर्मलं व्यधात् ॥१०॥ स एव पुरुषः श्रीमांखिलोक्यास्तिलकायते। मानसं यस्य

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