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प्रवचन- २५
शुद्ध पालन करने की शक्ति थी, किया था शुद्ध पालन और पा ली थी आत्मा की परम विशुद्धि! आत्मा में ज्ञानमूलक वैराग्य प्रकट हो जाना चाहिए। मोहमूलक वैराग्य :
वैराग्य का दूसरा प्रकार है मोहमूलक वैराग्य । 'साधुजीवन का पालन करने से स्वर्ग मिलता है, देवलोक के दिव्य सुख मिलते हैं..... हजारों.....लाखों वर्ष के सुख मिलते हैं। ऐसा जान लिया, सुन लिया शास्त्रों में से ..... और गृहस्थजीवन का त्याग कर दें, यह है मोहमूलक वैराग्य! मानवसुखों से देवों के सुख 'सुपरफाईन' होते हैं, श्रेष्ठ होते हैं, वे श्रेष्ठ सुख पाने की तमन्ना से मानवजीवन के सुखों के प्रति वैराग्य हो जाय, यह मोहमूलक वैराग्य है । भौतिक, वैषयिक सुखों का राग ही तो मोह कहलाता है!
साधुता के पालन से, विशुद्ध पालन से स्वर्ग के सुख मिलते हैं अवश्य, परन्तु वे सुख पाने की इच्छा सच्ची साधुता की विघातक है । साधुता का संबंध भौतिक सुखों के साथ नहीं है, साधुता का संबंध आत्मगुणों के साथ है। साधुता की आराधना आत्मा के शाश्वत अविनाशी सुख पाने के लिए करने की है । परन्तु जिस मनुष्य ने आत्मतत्त्व को जाना नहीं है, पहचाना नहीं है, आत्मसुख की कल्पना भी जिसको नहीं है, वह ज्ञानमूलक वैरागी कैसे बन सकता है? राग, द्वेष और मोह से मूढ़ जीवात्मा वैषयिक सुखों को ही जानता है। वैषयिक सुख पाने के लिए ही निरंतर सोचता है और प्रयत्न करता है । विश्वभूति एवं विशाखानंदी :
कभी ऐसा भी होता है कि साधुता का स्वीकार ज्ञानमूलक वैराग्य से किया हो परन्तु बाद में ज्ञानदृष्टि चली जाय और मोहदशा प्रबल हो जाय! प्रबल मोहदशा साधुता का सौदा करवा देती है-वैषयिक सुखों के लिए ! भगवान महावीर की आत्मा ने अपने एक भव में यह गलती कर डाली थी। जब वे विश्वभूति युवराज थे, अपने चचेरे भाई विशाखानन्दी ने विश्वभूति के साथ धोखा किया था। इससे विश्वभूति को सारे संसार पर ही वैराग्य हो गया और उन्होंने साधुजीवन अंगीकार कर लिया। साधु बनकर उन्होंने घोर तपश्चर्या की । तपश्चर्या के प्रभाव से उनकी प्रबल आत्मशक्ति जाग्रत हो गई थी । एक दिन, एक नगर में विश्वभूति मुनिराज भिक्षा लेने जा रहे थे। रास्ते में सामने से एक गाय आई और मुनि से टकराई। मुनि जमीन पर गिर पड़े। मुनि को गाय पर तनिक भी गुस्सा नहीं आया, परन्तु इस घटना को विशाखानन्दी ने
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