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[ २७ । सं० १५९१ में राव जयतसीके समयमें हुमायुंके भाई, कामरां ( जो लाहौरका शासक था) ने भटनेर पर अधिकार कर बीकानेर पर प्रबल आक्रमण किया। उसने गढ़ पर अधिकार कर लिया। उस समय उसके सैन्यने इस मन्दिरके मूलनायक चतुर्विशति पट्ट के परिकरको भग्न कर डाला, जिसका उद्धार बोहित्थरा गोत्रीय मंत्रीश्वर वच्छराज (जिनके वंशज वच्छावत कहलाए) के पुत्र मंत्री वरसिंह पुत्र मं० मेघा-पुत्र मं० वयरसिंह और मं० पद्मसिंहने किया। शिलालेखमें उल्लेख है कि महं० वच्छावतोंने इस मन्दिरका परघा बनवाया। मूलनायकजीके परिकरके लेखानुसार संवत् १५६२ में श्री जिनमाणिक्यसूरिजीने पुनः प्रतिष्ठा की। इसके पश्चात सं० १५६३, १५९५ और १६०६ में श्री जिनमाणिक्यसूरिजीने कई प्रतिमाओं एवं चतु. विशति जिन मातृकापट्टकी प्रतिष्ठा की।
इस मन्दिरमें दो भूमिगृह हैं जिनमें से एकमें सं० १६३९. में मंत्रीश्वर कर्मचन्दके लायी हुई १.५० धातु प्रतिमाएँ रखी गईं। सम्भवतः इन प्रतिमाओंकी संख्या अधिक होनेके कारण प्रतिदिन पूजा करनेकी व्यवस्थामें असुविधा देखकर इन्हें भण्डारस्थ कर दी होंगी। इन प्रतिमाओंके यहाँ आनेका ऐतिहासिक वर्णन उ० समयराज और कनकसोम विरचित स्तवनोंमें पाया जाता है, जिसका संक्षिप्त सार यह है :--
सं० १६३३ में तुरसमखानने सिरोही की लूटमें इन १०५० प्रतिमाओंको प्राप्तकर फतहपुर सीक्रीमें सम्राट अकबरको समर्पण की। वह इन प्रतिमाओंको गालकर उनमें से स्वर्णका अंश निकालनेके लिए लाया था। पर अकबरने इन्हें गलानेका निषेधकर आदेश दिया जहाँ तक मेरी दूसरी आज्ञा न हो, इन्हें अच्छी तरह रखा जाय । श्रावकलोगोंको बड़ी उत्कंठा थी कि किसी तरह इन्हें प्राप्तकी जाय पर ५-६ वर्ष बीत गये, कोई सम्राटके पास प्रतिमाओंके लानेका साहस न कर सका अन्तमें बीकानेर नरेश महाराजा रायसिंहको मंत्रीश्वर कर्मचन्द्रने उन प्रतिमाओंको जिस किसी प्रकारसे प्राप्त करनेके लिये निवेदन किया। राजा रायसिंहजी बहुत-सी भेंट लेकर अकबरके पास गये और उसे प्रसन्नकर प्रतिमायें प्राप्त कर लाए। सं० १६३६ आषाढसुदि ११ वृहस्पतिवारके दिन महाराजा, १०५० प्रतिमाओंको अपने डेरेपर लाये, और आते समय उन्हें अपने साथ बीकानेर लाए। जब वे प्रतिमायें बीकानेर आई तो मंत्रीश्वर कर्मचन्दने संघके साथ सामने जाकर बड़े समारोहके साथ प्रवेशोत्सव किया और उनमेंसे श्री वासुपूज्य चतुर्विशति पट्टको अपने देहरासरमें मूरनायक रूपमें स्थापित किया।
ये प्रतिमायें आज भी उसी गर्भगृहमें सुरक्षित है और खास-खास प्रसंगोंमें बाहर निकाल कर अष्टान्हिका महोत्सव, शान्ति-स्नानादिके साथ पूजनकर शुभ मुहूर्तमें वापिस विराजमान कर दी जाती हैं। गत वर्षों में सं० १९८७ में जैनाचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजीके बीकानेर
१ सं० १५९१ के मिगसर दि ४ को रात्रिके समय राव जयतसीने अपने चुने हुये १०९ वीर राजपूत सरदारों और भारी सेनाके साथ मुगलों की सेना पर आक्रमण किया इससे वे लोग लाहौरकी ओर भाग छूटे और गढ पर राव जैतसी का पुनः अधिकार हो गया।
"Aho Shrut Gyanam"