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बीकानेर की कला-समृद्धि भारत के शिल्प-स्थापत्य और चित्रकला के उन्नयन में राजस्थान का प्रमुख भाग रहा है। राजस्थान के प्रधान नगरों में बीकानेर का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है और उसके कलाकारों ने राजस्थान की कला-समृद्धि में स्तुत्यप्रयास किया है। शिल्प-स्थापत्य एवं चित्रकला में बीकानेर की अपनी विशेषता है जिसमें जैन समाज भी अग्रगामी रहा है। बीकानेर वसने के पूर्वको भी राज्यवर्ती भिन्न-भिन्न नगरों से प्राप्त सामग्री इस विषय का ज्वलंत उदाहरण है। पल्लू की जैन सरस्वती मूर्तियां कला-सौन्दर्य की दृष्टि से विश्वविश्रुत और अद्वितीय हैं। हनुमानगढ़ (भटनेर ), जांगलू, रिणी, नौहर आदि स्थानों में भी प्राचीन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। मन्दिरों में बीकानेर के अतिरिक्त मोरखाना, रीणी आदि प्राचीन एवं चूरू, सुजानगढ़ व बीकानेर के कई मन्दिर आधुनिक शिल्प एवं चित्रकला के सुन्दर प्रतीक हैं।
___ बीकानेर वसते ही चिन्तामणिजी, भांडासर, नमिनाथजी व महावीर स्वामीके शिखरबद्ध मन्दिर निर्माण हुए। सुदूर जेसलमेरसे पत्थर मंगवाकर निर्माण कार्य संपन्न किया गया। चिन्तामणिजीके मन्दिरके सभामण्डपमें सुन्दर हंस पंक्तियां व मधुछत्र बने हुए हैं। नमिनाथजी का मन्दिर बारीक तक्षणकलाका सुन्दर उदाहरण है, उसके सभामण्डपका प्रवेशद्वार बड़ा ही भव्य, कलापूर्ण है भांडासरजी के मन्दिर का निर्माण ऊँचे स्थान पर हुआ है इसकी ऊँचाई समतल भूमिसे ११२ फुट व मन्दिरके फर्शसे ८१ फुट है परकोटे की दीवाल का ओसार १० फुट एवं कंगुरोंके पास शा फुट चौड़ा है । तिमंजिला विशाल और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से सम्बन्धित वाद्ययंत्रधारी पुत्तलिकाओंसे युक्त जगती वाला है। इनमें कायोत्सर्ग मुद्रास्थित २४ जिनेश्वर, ८ यक्ष एवं विविध भावभंगिमायुक्त नृत्य वाजिनवाली १६ किन्नरियें हैं । मन्दिरके स्तम्भोंकी संख्या ४२ है। इन मन्दिरोंके शिखरगुंबज गर्भगृह के सम्मुख सभा-मण्डप, नाट्य-मण्डप व शृङ्गार-चतुष्किका आदि शैली प्राचीन शिल्पशास्त्रोंके अनुसार है। अत्रस्थ धातु प्रतिमाएं भी बड़ी ही कलापूर्ण प्राचीन और संख्याप्रचुर होते हुए ऐतिहासिक दृष्टिसे भी कम महत्व की नहीं हैं। श्री चिन्तामणिजी के मन्दिर में गुप्तकालीन व तत्परवर्ती धातु प्रतिमाएँ विशेषत: उल्लेखयोग्य हैं। पाषाण प्रतिमाओं में भी प्राचीन भव्य और कलापूर्ण प्रतिमाएं यहांके मन्दिरों में विराजमान हैं । नाइटों की गुवाड़ स्थित शत्रुक्षयावतार श्री कृषभदेव भगवान की प्रतिमा बड़ी ही सप्रभाव, विशाल और मनोहर है। कई मन्दिरों में संगमर्मर का सुन्दर काम हुआ है जिसमें नवनिर्मित श्री महावीर स्वामी का मन्दिर ( बोहरों को सेरी ) महत्त्वपूर्ण हैं इसका शिखर भी संगमर्मर का ही है। स्वर्गीय सेठ भैरूदानजी कोठारी की अमर कलाप्रियता के ये उदाहरण हैं। सुजानगढ़ का जगवल्लभ पाश्वनाथ का देवसागर प्रासाद जिसकी ४० वर्ष पूर्व प्रतिष्ठा हुई थी, साढ़े चार लाख की लागत से जैसराजजी गिरधारीलालजी पन्नाचन्दजी सिंघीने निर्माण करवाया था। यह देवालय बड़ा ही भव्य और विशाल है। इसी प्रकार चूरू के मन्दिर में यति ऋद्धिकरणजी ने लाखों रुपये लगाकर नयनाभिराम कलाभिव्यक्ति की है।
"Aho Shrut Gyanam"