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। ६५ किया है, कभी भुलाया नहीं जा सकता। इतिहासके पृष्ठोंमें इस जातिके ज्योतिर्धरोंके नाम
और उनकी महान सेवाएँ स्वर्णाक्षरों में अङ्कित हैं और रहेगी । उनकी वीर महिलाएं देह-मू.को त्यागकर यदि शील रक्षाके निमित्त जीवन-सर्वस्व पतिदेवके वियोगमें अपनी प्रेम भावनाको चिरस्मरणीय एवं चिरस्थायी रखनेके हेतु धधकते हुए वैश्वानरमें पतिदेहके साथ हँसते-हँसते प्राण निछावर करदें तो आश्चर्य ही क्या है ?
जैनधर्मकी दृष्टिसे तो सती-दाह मोह-प्रथित एवं अज्ञान-जन्य आत्मघात* ही हैं, पर स्वयं क्षत्रिय होनेसे वीरोचित जातीय संस्कार वश, वीर राजपूत जातिके अभिन्न संपर्क एवं घनिष्ट सम्बन्धमें रहनेके कारण यह प्रथा ओसवाल जातिमें भी प्रचलित थी, जिसके प्रमाण स्वरूप यत्र-तत्र अनेक सती देवलिएँ इस जातिकी सतियोंकी पाई जाती हैं।
बीकानेरमें अन्वेषण करने पर हमें २८ ओसवाल सतियोंका पता चला है जिनमें से दोके लेख अस्पष्ट एवं नष्ट हो जानेसे नहीं दिये जा सके। दो स्मारकोंके लेख दिये है जिनकी देवलियां नहीं मिली इस प्रकार २४ देवलियोंके व २ स्मारकोंके कुल २६ लेख प्रकाशित किये हैं। इन लेखों में सर्व प्रथम लेख सं० १५५७ का और सबसे अंतिम लेख सं० १८६६का है जिससे यह पता चलता है कि बीकानेरकी राज्यस्थापनासे प्रारंभ होकर जहां तक सती प्रथा थी, वह अविच्छिन्न रूप से जारी थी। ऐसी सती-देवलिए सैकड़ोंकी संख्यामें रही होगी पर पीछेसे उनकी देखरेख न रहनेसे नष्ट और इतस्ततः हो गई।
ओसवाल जातिकी सती देवलियोंके अतिरिक्त संग्रह करते समय मोदी, माहेश्वरी, अग्रवाल, दरजी, सुनार प्रभृति इतर जातियोंके भी बहुतसे सती-देवल दृष्टिगोचर हुए। ओसवाल जातिके इन लेखोंमें कई-कई लेख बहुत विस्तृत और ऐतिहासिक दृष्टिसे महत्वशाली हैं। कतिपय ओसवाल जातिके गोत्रांका जो अब नहीं रहे, गोत्रोंकी शाखाओं, वंशावलियों, राजाओंके राज्यकाल आदिका पता लगता है।
* युगप्रधान दादासाहब श्री जिनदत्तसूरिजीके समयमें भी सती-प्रथा प्रचलित थी। पट्टावलियों में उल्लेख मिलता है कि जब वे अँझणु पधारे, श्रीमाल जातिकी एक बाल-विधवा सती होनेकी तैयारी में थी जिसे गुरुदेवने उपदेश द्वारा बचा कर जैन साध्वी बनाई थी ! सतरहवीं शताब्दीके सुप्रसिद्ध जैन योगिराज श्रीआनन्दधनजी अपने "श्रीऋषभदेवस्तवन" में लिखते हैं कि
"केई कंत कारण काष्ट भक्षण करें रे, मिलसुं कंत नै धाय । ए मेलो नवि कइयइ संभवै रे, मेलो ठाम न ठाय।"
श्रद्धेय ओझाजी लिखित बीकानेरके इतिहासमें कौड़मदेसरके सं० १५२९ माघ सुदि ५ के एक लेखका जिक्र है जिसमें साह रुदाके पुत्र सा० कपाकी मृत्यु होने और उसके साथ उसकी स्त्रीके सती होनेका उल्लेख है। संभवतः यह सती ओसवाल जातिकी ही होगी। वहां पारखौंकी सतीका स्मारक मंदिर भी है पर अब उस पर लेख नहीं है।
"Aho Shrut Gyanam"