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श्री ऋषभदेवजी का मन्दिर
यह मन्दिर नाहों की गुवाड़ में है। इसकी प्रतिष्ठा सं० २६६२ के चैत्र बदि ७ को युगप्रधान श्रीजिनचंद्रसूरिजीने की थी। इस समय अन्य ४० मूर्तियोंके प्रतिष्ठित होने का उल्लेख सुमति कल्लोल कृतस्तवन में है । मूलनायक श्री ऋषभदेवजी की प्रतिमा बड़ी मनोहर, विशाल ( ६८ अंगुलकी ) और प्रभाव होनेके कारण प्रतिदिन सैकड़ोंकी संख्या में नरनारी दर्शनार्थ आते हैं ! इस मंदिरको सुमतिकल्लोलजीने "शत्रुब्जयावतार" शब्दोंसे संबोधित किया है। सं० १६८६ मिति चैत्र बदि ४ को चोपड़ा जयमा श्राविकाके बनवाई हुई श्री जिनचन्द्रसूरि मूर्त्ति श्री जिनसिंहसूर चरण, महदेवीमाता व भरत चक्रवर्ती (हाथी पर आरूढ़) की मूर्तियों की प्रतिष्ठा श्री जिनराजसुरिजीने की थी उसके बाद सं० १६८७ ज्येष्ठ सुदि १० भौमवारको भरत- बाहुबलीकी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा और सं० १६६० फागुण वदि ७ के गणधर श्री गौतमस्वामीके बिम्बकी प्रतिष्ठा श्री जिनराजसूरिजी ने की थी । भमतीमें पांच पांडवोंकी देहरी है जिसमें पांच पांडवोंकी मूर्तियां सं० १७१३ आषाढ बदि ६ को स्थापित हुई । कुन्ती और द्रौपदीकी मूर्तियों पर लेख देखने में नहीं आते। इस देहरीके मध्य में श्री आदीश्वरजीके चरण श्राविका जयतादे कारित व सं० १६८६ मार्गशीर्ष महीने में श्री जिनराजसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित है । उ० श्री धनराजके चरण मूलनायकजी की प्रतिष्ठा के समय के व एक अन्य चरण सं० १६८५ के हैं ।
श्री पार्श्वनाथजी का मन्दिर
यह मंदिर श्री ऋषभदेवजीके मन्दिर के अहाते में है। इसकी प्रतिष्ठा सं० १८२६ आषाढ़ सुदि ६ गुरुवार को श्री जिनलाभसूरिजीनेकी । यह मंदिर बेगाणी अमीचंदजीके पुत्र विभारामजी की पत्नी चितरंग देवी ओर मुलतानके भणसाली चौथमलजी की पुत्री वनीने बनवाया था | श्री महावीरजी का मन्दिर ( डागोंका )
यह मन्दिर श्री वासुपूज्यजी के पीछे और पुंजाणी डागोंकी पोलके सामने है । इस मन्दिर की प्रतिष्ठा का कोई निश्चित उल्लेख नहीं मिला पर श्रीजिनचंद्रसूरिजी के विहारपत्र में सं० १६६३ में "तत्र प्रतिष्ठा" लिखा है जिससे संभव है कि यह उल्लेख इसी मन्दिर के प्रतिष्ठा
सूचक है। मूलनायकजीकी पीले पाषाण की प्रतिमा है जिस पर कोई लेख नहीं पाया जाता । मन्दिर के दाहिनी ओर देहरी में सं० १९७६ मिती मिगसर वदि ६ को जांगलकूप ( जांगलू ) के वीर - विधि चैत्यमें स्थापित श्री शांतिनाथ भगवान की प्रतिमा का विशाल परिकर है जिसमें इसे श्रावक तिलक के निर्माण करवाने का उल्लेख है । विधि चैत्यका सम्बन्ध खरतरगच्छ से है, अतः तत्कालीन प्रभावक युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि प्रतिष्ठित होना विशेष संभव है । लेखका 'गुणरत्न रोहणगिरि' वाक्य श्रीजिनदत्तसूरिजी के गणधर सार्धशतक के “गुण मणि रोहण गिरिणो" आदि पद से साम्य होनेके कारण भी इस सम्भावना की पुष्टि होती है ।
"Aho Shrut Gyanam"