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५३ ] जैन उपाश्रयों का इतिहास श्रावक समाज के लिए जिस प्रकार देवरूप से जैन तीर्थकर पूज्य हैं उसी प्रकार गुरुरूप जैन साधु भी तद्वत् उपास्य हैं। अतः बीकानेर बसने के साथ जैन श्रावकों की बीकानेर में बस्ती बढ़ती गई तब उनके धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने वाले और धर्मोपदेष्टा जैन मुनियों का आना जाना भी प्रचुरता से होने लगा। और उनके ठहरने व श्रावकों को धर्म ध्यान करने के लिए उचित स्थान की आवश्यकता ने ही पौषधशाला या उपाश्रयों को जन्म दिया। इन धर्मस्थानोंका मन्दिरों के निकटवर्ती होनेसे विशेष सुविधा रहती है इसलिये श्री चिन्तामणिजी
और महावीरजी जो कि १३ और १४ गुवाड़ के प्रमुख मन्दिर हैं, उनके पार्श्ववत्ती पौषधशालाएँ बनवाई गई। उस समय जैन साधुओंके आचार विचारों में कुछ शिथिलता प्रविष्ट हो चुकी थी। अतः सं० १६०६ में 3 कनकतिलक, भावहर्ष आदि खरतर गच्छीय मुनियों ने बीकानेरमें क्रियोद्धार किया और धर्मप्रेमी संग्रामसिंहजी वच्छावत की विज्ञप्ति से सं० १६१३ में श्रीजिनचन्द्र सूरिजी बीकानेर पधारे। आपश्री ने यहाँ आनेके अनन्तर क्रियोद्धार कर चारित्र पालन कर सकने वाले मुनियों को ही अपना साथी बनाया अवशेष यति लोग इनसे भिन्न महात्मा के नामसे प्रसिद्ध हो गए। पुराने उपाश्रय में वे लोग रहते थे इसलिए मंत्रीश्वर ने अपनी माताके पुण्य वृद्धिके लिए नवीन बड़ी पौषधशाला निर्माण करवायी जो अभी बड़े उपाश्रय के नामसे प्रसिद्ध है। वह पौषधशाला सुविहित साधुओं के धर्म ध्यान करने के लिए और इसके पास ही संघने साध्वियों के लिए उपाश्रय बनवाया * इसी प्रकार समय-समय पर कंवलागच्छ, पायचंदगच्छ, व लुकागच्छ व तपागच्छ के उपाय बनवाये। १६ वीं शती में फिर यतियों में शिथिलाचार बढ़ गया और विहार की मर्यादा भी शिथिल हो गई जो यति विशेष कर बीकानेर में रहने लगे उन्होंने अपने अपने उपाश्रय भी अलग बनवा लिये क्योंकि खरतर गच्छमें यतियों की संख्या उस समय सैकड़ों पर थी अतः पुराने उपाश्रय में इनकी भीड़ लगी रहती थी, अतः जिन्हें वहां रहने में असुविधा प्रतीत हुई या जिनके पास धन इकट्ठा हो गया अथवा राजदरबार में उनकी मान्यता होनेसे राजकी ओरसे जमीन मिल गई उन्होंने स्वतंत्र उपाश्रय बनवा लिए। उपाश्रयों के लेखोंसे प्रमाणित है कि इस शताब्दी में बहुत से नवीन उपाश्रय बनकर उनकी संख्या में वृद्धि हुई। अब समस्त उपाश्रयों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है ।
बड़ा उपासरा ___ यह उपाश्रय रांगड़ीके चौकमें है। यह स्थान बहुत विशाल बना हुआ है। इसमें सैकड़ों यति साधु चातुर्मास करते थे। इस उपाश्रयके श्रीपूज्यजी वृहद् भट्टारक कहलाते हैं। उनके अनु
* इस समय प्राचीन उपाश्रय भी सुविहित साधुओं के व्यवहार में आता था, क्योंकि समयसुन्दरजी ने सं १६७४ के लगभग जब बादशाह जहांगीर का फरमान श्रीजिनसिंहसूरिजी को बुलाने के लिए आया तब आचार्यश्रीके उसी चिन्तामणिजी के मन्दिर से संलग्न उपाश्रय में विराजमान होनेका उल्लेख किया है।
"Aho Shrut Gyanam"