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जिस प्रकार अनकी कमी है, उसी तरह घृत, दुग्ध, वस्त्र आदिकी महई. ताने भी नाकों दम ला दिया है। लोगोंको दूध, घी, दुष्प्राप्य सा हो रहा है। इसका कारण एक मात्र, हमारे पशुधनका सब तरहसे संहार है । लाखों पशु नित्य कटते हैं, तथा जल और थलमार्ग द्वारा विदेशोंको भेजे जाते हैं । गोचरभूमि न छोड़नेसे तथा घास आदिकी महँगीके कारण पश निर्बल हो कर क्षीणायु हो रहे हैं । तथा उनकी नस्लें खराब हो रही हैं। इन सब पातोंका वर्णन आप विस्तृत रूपसे, इस पुस्तकमें पावेंगे ही। परन्तु एक बात यहाँ बतलाना उचित समझता हूँ। . इस वर्तमान योरोपीय महासमरकी क्षति पूर्तिके लिये “ क्षतिपूर्तिकमीशन" ने जर्मनीसे एक हजार साँड तथा ५ लाख गौएँ फ्रांसको; ११ हज़ार १५० पशु इटलीको; २ लाख दस हज़ार गौएँ बेल्जियमको, और ५ हजार सोड, ५२ हजार बैल तथा एक लाख गौएँ सर्वियाको दिलाना निश्चय किया है। हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं है, जर्मनी दे या न दे। हमें तो यहाँ केवळ यही दिखाना है कि विदेशों में पशुधन कितना अमूल्य है जो क्षतिपूर्ति में मांगा जा रहा है। अर्थात् युद्धमें मरे हुए मनुष्योंके मूल्य के बदले में पशुधन लिया जा रहा है। वे लोग सब मिला कर ८ लाख ५९ हजार १५० उपयोगी पश अम्मनीसे लिया चाहते हैं।
वे चाहे कितना ही लें, क्योंकि जर्मनीने उन्हें क्षति पहुँचाई है । परन्त हमारा एक प्रश्न है कि युद्ध में भारतने तो सहायता पहुँचाई है। उसने ११ लाख ६१ हजार ७८९ रंगरूट समुद्रपार भेजे हैं। जिनमेंसे १ लाख १ हजार ४३९ सैनिक घायल, कैद, पता और मृत्यु पा चुके हैं। मैं यहाँ युद्ध में दिये भारतीय धनको नहीं दिखाना चाहता, क्योकि यहाँ सवाल जीवोंका है। भारतने उन्हें शक्ति भर सहायता दी है। फिर भी उसके पशुओंका संहार बरी तरह क्यो किया जा रहा है ? और उस कमीशनने भारतकी इस महान क्षतिके लिये कितने पशु भारतमें भेजनेका प्रबन्ध किया है ? कुछ नहीं, एक मक्खी भी विदेशोंसे बहादुर भारतको नहीं दी जा सकती।
मुख्य पात तो यह है कि हमारे हाथमें कुछ भी अधिकार नहीं है । नहीं तो हमें यह दुर्भिक्षका प्रलय-सूचक ताण्डवनृत्य क्यों देखना पड़ता ?
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