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"मा नो वधीरिन्द्र मा परा दा मा नः प्रिया भोजनानि प्रमोषीः। अण्डा मा नो मघवञ्छक निभेन्मामः पात्रा भेत्सह जानुषाणि।"
-ऋग्वेद मं० १ ० १५० सू० १०४ मं०८। अर्थात्-हे प्रशंसित, धनयुक्त, समस्त कार्योंके लिये समर्थ, शत्रुओंका विनाश करनेवाले, सभापति राजन्, आप अपनी प्रजाको मत मारिए । अन्यायसे दण्ड मत दीजिए । स्वाभाविक कार्य और प्यारे भोजनके पदार्थोको मत छीनिए । हमारे अत्यन्त प्यारोंको न मारिए । हम लोगोंके सोने चादीके पात्रोंको मत विगाडिए । "
इस बातका ध्यान निस्पृह राजा ही रख सकता है । और यदि उक्त वैदिक वाक्यका ध्यान रख कर राजा कार्य करता रहे तो किसी तरहका झगड़ा ही नहीं रह जाता । भारतवर्षके साथ बड़ा भारी अन्याय है, और वह यह कि हम लोगोंको अपने दुःख निवारण करनेका मौका ही नहीं दिया जाता । यदि कोई अपने दुःखोंको सुनाने जाता है तो उसे अराजक ठहरा कर जैसे बने तैसे दमन करनेका प्रयत्न किया जाता है। अपनी दाद फरियाद करनेवालों के लिये विषैले कानूनोंकी रचना की जाती है । परन्तु भारत अब भूखों मर रहा है। उसके जीवनमें भी अब संशय उत्पन्न हो गया है। वह दमननीतिके. सहारे अब कदापि नहीं दबाया जा सकता है । दमननीतिका नाम सुनते ही वह अब और भड़कने लगा है। क्योंकि:--
"बुभुक्षितः कि न करोति पापम्" भूखा जो न कर डाले सो ही थोड़ा है। भारत-सुदशा-प्रवर्तक वैद्योंने अब इस मृतप्राय, जर्जर-काय भारतको दुर्भिक्ष आदि व्याधियोंके पंजेसे छुटकारा दिलानेके लिये एक मात्र अंतिम औषधि " स्वराज्य" को बताया है । वेद भी"व्यचिष्टे बहुपाय्ये यतेमहि स्वराज्ये ।"
--ऋ० ५।५६६ अर्थात-" हम विस्तृत और बहुतोंके द्वारा पालन होनेवाले स्वराज्यके लिये यत्न करें।" इत्यादि कह कर उस अमत-तुल्य औषधिको ही देशके लिये उपयुक्त होने की साक्षी दे रहे हैं।
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