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उपोद्घात
(खंड-१) विभाव - विशेष भाव - व्यतिरेक गुण
(१) विभाव की वैज्ञानिक समझ लोगों में विश्व की उत्पत्ति से संबंधित अलग-अलग प्रकार की मान्यताएँ प्रवर्तित हैं। उसमें मुख्य रूप से भगवान की इच्छा को ही लोगों द्वारा प्राधान्यता दी जाती है। वास्तविकता इस बात से बिल्कुल ही अलग है। इन सभी में यदि कोई मूल कारण है तो वह स्वतंत्र होना चाहिए लेकिन यदि किसी के दबाव से हुआ हो तो? भीड़ में धक्का-मुक्की में लग जाए तो किसे पकड़ेंगे? इसी प्रकार यह किसी ने रचा नहीं है। मूल कारण भगवान हैं और ऐसा संयोगी संबंध से है, स्वतंत्र संबंध से नहीं। संयोगों के दबाव से विशेष भाव-विशेष गुण उत्पन्न होने की वजह से संसार खड़ा हो गया है, जो पूर्ण रूप से विज्ञान ही है। संपूर्ण निरीच्छक को इच्छावान साबित किया गया है और वह भी पूरी दुनिया भर का। खैर, निर्लेप परमात्मा को दुनिया भर के लोगों के कर्तापन के आक्षेप में भी निर्लेप ही रहना है न!
मूल आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय हमेशा से शुद्ध ही हैं, भगवान महावीर के समान ही हैं! यह तो दो द्रव्यों के, जड़ और चेतन के सामीप्य भाव के कारण एकरूप भासित होता है, भ्रांति उत्पन्न होने के कारण।
मूल में अज्ञान है ही और संयोगों का दबाव आने से मूल आत्मा की दर्शन शक्ति आवृत हो जाती है। वहाँ पर फर्स्ट लेवल का मूल विशेष भाव उत्पन्न होता है, जो 'मैं' के रूप में उत्पन्न होता है। वह मूल आत्मा के रिप्रेजेन्टेटिव (प्रतिनिधि) के रूप में है। फिर यह 'मैं' वापस विशेष भाव करता है, जिसे सेकन्ड लेवल का विशेष भाव कहा गया है, जिसमें 'मैं कुछ हूँ, मैं कर रहा हूँ, मैं चंदू हूँ, मैं जानता हूँ। यह मैंने ही किया
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