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[ १३ ] होना आवश्यक है। इसके विना जैन आप्तता सम्भव नहीं है। वेदप्रामाण्यवादी ऐसे पुरुषकी सत्ता स्वीकार नहीं करते और धर्ममें केवल वेदके ही प्रामाण्यको स्वीकार करते हैं। कुमारिलने अपने पूर्वज जैनाचार्य समन्तभद्रके द्वारा प्रस्थापित पुरुषकी सर्वज्ञताका विस्तारसे खण्डन किया है, और कूमारिलका खण्डन समन्तभद्रके व्याख्याकार अकलंक और विद्यानन्दने विस्तारसे किया है ।
आचार्य समन्तभद्रने 'आप्तमीमांसा' के नामसे ११४ कारिकाओंमें एक प्रकरण ग्रन्थ रचा है, जिसमें आप्तकी मीमांसा करते हुए एकान्तवादी दर्शनोंकी समीक्षा की है। साथ ही अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा की है। इसीसे उन्हें स्याद्वादका प्रतिष्ठाता तक कहा जाता है। उनके इस ग्रन्थ पर आचार्य अकलंकने, जिन्हें जैन प्रमाणव्यवस्थाका प्रतिष्ठाता कहा जाता है, अष्टशती नामक भाष्य रचा है और उस भाष्यको आत्मसात् करते हए आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीके रूपमें एक अमल्य निधि प्रदान की है । ये तीनों ही आचार्य प्रखर तार्किक थे। ____ आचार्य विद्यानन्दका मन्तव्य है कि आप्तके स्वरूपको दर्शानेवाले ऊपर उद्धृत मंगल श्लोकको ही दृष्टिमें रखकर समन्तभद्रने आप्तमीमांसा की रचना की है। उक्त श्लोक 'तत्त्वार्थसूत्र' की सभी हस्तलिखित प्रतियोंके प्रारम्भमें पाया जाता है और तत्त्वार्थसूत्रकी आद्य वत्ति सर्वार्थसिद्धिके प्रारम्भमें भी पाया जाता है। अतः जब एक पक्ष उसे सूत्रकारकी कृति मानता है, तब एक पक्ष ऐसा भी है जो उसे वृत्तिकारकी कृति मानता है, और इस तरह वह पक्ष आचार्य समन्तभद्रको पूज्यपाद देवनन्दिके, जो सर्वार्थसिद्धिके रचयिता हैं, पश्चात्का मानता है। किन्तु आचार्य विद्यानन्दके उल्लेखोंसे यही स्पष्ट होता है कि वे उक्त मंगल श्लोकको सूत्रकारको ही कृति मानते हैं।
आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीके प्रारम्भमें श्री वर्धमान स्वामीको नमस्कार करते हुए अपनी कृतिको 'शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसित' कहा है । इस पदकी व्याख्या करते हुए उन्होंने 'शास्त्रावताररचितस्तुति' का अर्थ 'मङ्गलपुरस्सरस्तव' किया है। उसकी व्याख्या करते हुए कहा है—मंगल है पूर्वमें जिसके उसे मंगलपुरस्सर कहते हैं । अर्थात् शास्त्रके अवतारकालमें रची गई स्तुति 'मङ्गलपुरस्सरस्तव' है, ऐसी उसकी व्याख्या है। अतः मंगलपुरस्सरस्तवका विषयभूत जो परम आप्त है उसके गुणातिशयकी परीक्षाको तद्विषयक आप्तमीमांसित जानना चाहिए।
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