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|| अनुभवप्रकाश ॥ पान १२॥ है स्वरूप कहा ? कैसे पाइये? प्रथम पद अपनेका उपयोगका प्रकाश है। दर्शनज्ञान है ई उपयोग चारित्र उपयोग । दर्शन देखता है, ज्ञान जानता है, चारित्र परिणामकरि है
आचरिता है । ऐसा ज्ञेयका देखना जानना आचरणा अनादि कीया अपने विशुद्धहै पदमै उपयोग न दीया । अतींद्रियसुखके लाभविना रीता रह्या । अनन्ते तीर्थङ्कर है भये तिनहूनें स्वरूप शुद्ध किया, अनन्तसुखी भये । अब मोकौभी ऐसे स्वरूप ईशुद्ध करना। है ' मुनिवर जन निरंतर स्वरूपसेवन करे हैं । तातें अपना त्रैलोक्यपूज्य सवतें उच्चहै पद अवलोकि कार्य करना है । कर्मघटामें मेरा स्वरूपसूर्य छिप्या है । कछु मेरा स्वरू- है
पसूर्यका प्रकाश कर्मघटाकरि हण्या न जाय । आवया है। वारेही वारै घटाका जोर है। है मेरे स्वरूपकू हनि न सके । चेतनाते अचेतन न करि सके । मेरीही भूलि भई । स्वपद हैं है भूल्या । भूलि मेटि जवही मेरा स्वपद ज्यौंका त्यौं वण्या है ।