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अनुभवप्रकाश.
प्रकाशक
लखमीचंद वेणीचंद, कुईवाडी.
कोल्हापूर-जैनेंद्र प्रेस. किंमत ६ आणे.
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को सम्पति वा कालाप
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अनुभवप्रकाश.
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सिद्धेभ्यः ॥
नमः
अनुभवप्रकाश.
2.
दोहा-गुण अनन्तमय परमपद । श्रीजिनवर भगवान् ॥ ज्ञेय लक्ष्य है ज्ञानमैं | अचल सदा निजस्थान ॥ १ ॥
परमदेवाधिदेव परमात्मा परमेश्वर परमपूज्य अमल अनुपम आनन्दमय अखfusa भगवान् निर्वाणनाथकों नमस्कार करि अनुभवप्रकाश ग्रन्थ करों हौं, जिनके प्रसाद पदार्थका स्वरूप जानि निज आनन्द उपजै | प्रथम यह लोक षड्द्रव्यका बया है । तामैं पञ्चद्रव्यसौं भिन्न सहजस्वभाव सच्चिदानन्दाद्यनन्तगुणमय चिदानन्द है । अनादिकर्म सँयोगतैं अनाद्यशुद्ध होय रह्या है । तातैं परपद मैं आपा मानि परभाव कीये । तातैं जन्मादि दुःख सहे है । ऐसी दुःखपरिपाटी अपनी अशुद्धचिन्तवनतें पाई है। जो अपने स्वरूपकी संभार करें तो एकछिनमें सब दुःख विलय जाय । जैसा कहु
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान २॥ है सासंता आनन्दमय परमपद है, ताको पावै, ताकी संभारके करतही स्वरूपप्राप्ति होय है है है, यह उपाय दिखाइये है। येही परिणाम उलटि परमैं आपा मानि स्वरूपका विस्मरण है है करि रह्या है । येही परिणाम सुलटि स्वरूपकौं आपा मांनि परविस्मरण करै, तो मुक्तिहैं कामिनीका कन्थ होवे ॥
ऐसे परिणाममें कबु कलेश तो नहीं । ये परिणाम कौन करै ? ताका समाधान, है ई अनादि अविद्यामैं पडा है । मोहकी गांठि निवड पडी है । आत्मा परका एकत्वसन्धाने है १ होय रहा है । जैसैं कोई पुरुष अफीमके अमलको चढ्या है, वह दुःख पावै है, परि है है छूटि न सकै, काहेते बहुत चढ्या ? छूटे सुख है, कलेश नाही, परि वाइडि आवै सो है है लेही ले । तैसें पर मो वध्या है, छूटे सुख है, परि न छूटे है, अनादिसँयोग छूटतें सुख । है है, परि झूठेही दुःख माने है। याके मेटवेको प्रज्ञाछैनी आत्मपरके एकत्वसन्धानमें । है डारे, चेतना अंश अपना जाने, जामैं जडप्रवेश नांही । कैसे जाने ? सो कहिये है ।। है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ३॥ । यह परमैं आपा जानै है, सो यह ज्ञानी निज वानिगी है । इस निजज्ञानवा- है है निगीको बहुत संत पिछानि पिछानि अजर अमर भये, सो कहनेमात्रही न ल्यावै, है है चित्तको चेतनामें लीन करै, स्वरूप अनुभवका विलास सुखनिवास है, ताकौं करै । है है सो कैसे करै सो कहिये हैं॥
निरन्तर अपने स्वरूपकी भावनामैं मग्न रहै, दर्शनज्ञानचेतनाका प्रकाश उपहै योगदारमैं दृढ भावै । चित्परिणतिते स्वरूप रस होय है । द्रव्य गुण पर्यायका यथार्थ है १ अनुभवना अनुभव है। अनुभवतें पञ्च परमगुरु भये होहिंगे। सो प्रसाद अनुभवका है है । अनुभव आचरणकौं अरिहंत सिद्ध सेवै हैं। अनुभवमैं अनन्तगुणके सकल रस है आवै है सो कहिये हैं।
ज्ञानका प्रकट प्रकाश अनन्तगुणकौं जानै । ज्ञान विशेषगुणकौं परिणति परणवै, वेदै, आस्वाद करै । तहां अनुपम आनन्द फल निपजै ऐसेंही दरसनकों परिणति है
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॥अनुभवप्रकाश || पान ४॥
है परणवै, वेदै, आस्वाद करै सुखफल निपजै । याही रीति सब गुणकौं परणवै, वेदै, है है आस्वादै आनन्द अनन्त अखण्डित अनुपमरस लीये उपजै । तातें सब गुणका रस है है परिणतिके द्वार अनुभव करवैमें आया । ऐसेंही द्रव्यकों परणवै, वेदै, आस्वादै, है है आनन्द पावै । तब परिणतिद्वारि द्रव्य अनुभव भया । अनुभवका रस गुणपरिणति है १ एकरस भये होय है । वस्तुका स्वरूप है । सो गुण चेतनाका सक्षेपमात्र वर्णन है
कीजिये है।
सकलगुणमैं ज्ञान प्रधान है । काहेत? ज्ञान विशेष चेतना है। ज्ञान सबका है है ज्ञाता है । सूक्ष्म न होता तो इन्द्रियग्राह्य होता । ताः सूक्ष्मकरि ज्ञानकी सिद्धि सत्ता-१ है गुणविना सूक्ष्म सासता न होता। वीर्यगुणविना सत्ताकी निष्पत्तिसामर्थ्य कहां पाईये । है १ अगुरुलघुविना वीर्य हलका भारी भये जडताकौं धरता। प्रमेयगुणविना अगुरुलघुका है हैं प्रमाण कहां पाईये? अप्रमाण भये कौन मानता? वस्तुत्वविना प्रमाण किसका कहिये?
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॥ अनुभवप्रकाश || पान ५ ॥
अस्तित्वविना वस्तुत्व किसके आधार कहिये ? प्रदेशत्वविना अस्तित्व किसका निरू पिये ? प्रभुत्वविना प्रदेशप्रभुता कहां रहती ? विभुत्वविना प्रभुत्व सबमैं कैसे व्यापता ? जीवत्वविना विभुत्व अजीव होता, चेतनाविना जीवत्व कहां वर्तता ? ज्ञानविना चेतसर्वज्ञताविना नका विशेष जान्या न परता, दर्शनविना सामान्यविशेषज्ञान न रहता, दर्शन कौन जानता? सर्वदर्शित्वविना ज्ञान कौन देखता ? चारित्रचेतनाविना दर्शनज्ञानकी थिरता कहां रहती ? परिणामात्मकत्वविना चिदचिद्विलास कहांत करता ? अकारणकार्यत्वविना परकार्य भये, निजकार्यको अभाव होता । असंकुचितत्वविना अविनाशी चेतनाविलास संकोच न आवता । त्यागोपादानशून्यत्वविना यहणत्याग लग्या रहता । अकर्तृत्वंविना कर्मका कर्त्ता होता । अभोक्तृत्वविना परभाव भोगवता । असाधारणविना चेतनाचेतनका भेद न परता । साधारणविना कोई पदारथ सत् होता, कोई असत् होता । तत्त्वविना वस्तु स्वरूप न धरता । अतत्त्वविना परका तत्त्व
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ६॥ है आवता । भावविना स्वभावका अभाव होता । भाव भावविना अतीतका भाव अना३ गतमें न रहता । भावाभावविना परिणमन समयमात्र न संभवता । अभावभावविना
अनागत परिणमन न आवता । अभावविना कर्मका सद्भाव जान्या परता। सर्वथा । १ अभाव अभावविना अतीतमैं कर्म अभाव था, सो अनागत अभावमैं ऐसा न होता । है है कर्ताविना निजकर्मका कर्ता न होता। कर्मविना स्वभावकर्मका अभाव होता। कर-है है णविना परिणमनकरि स्वरूपका साधन था सो न होता । सम्प्रदानविना परिणति-है १ स्वरूपमैं आप समर्पण न करता । अपादानविना आपतैं आपकरि आप न होता है है अधिकरणविना सबका आधार न होता। स्वयंसिद्धविना पराधीनता आवती । अज-है है विना उपजता । अखण्डविना खण्डितता पावता। विमलविना मल होता । एकविना हैं अनेक होता । अनेकविना गुण अनेकका अभाव होता । नित्यविना अनित्य होता। है अनित्यविना षड्गुणी वृद्धिहानि न होय । जब अर्थक्रियाकारकस्वभावकी सिद्धि न है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ५॥ है होय । भेदविना अभेद द्रव्य गुण होय । अभेदविना एक वस्तु न होय । अस्तिविना है १ नास्ति होय । नास्तिविना परकी अस्तिता होय | साकारविना निजाकृति न होय । है
निराकारविना पराकार धरि विनाश पावै । अचलस्वभावविना चल होय । ऊर्ध्वगमन-इ है स्वभावविना उच्चपद न जान्यौ परै । इत्यादि अनंत विशेपण ज्ञानी अनुभव करे। सो है निजजानि कैसैं होय ? सो कहिये हैं ।। है प्रथम अनादि परमैं अहं ममरूप मिथ्याका नाश करै। पीछै पररागरूप भाव विध्वंस करै । जब परराग मिटै तब वीतराग होय । परप्रवेशका अभावभाव भया, तब स्वसंवेदरूप निजजानि होय । अथवा अपने द्रव्य गुण पर्यायका विचार करि निजपद है जाने । अथवा उपयोगमैं जानरूप वस्तुकौं जाने। अनन्तमहिमाभण्डार सार अविकार अपारशक्तिमण्डित मेरा स्वरूप ऐसा भाव प्रतीतिकरि करै । ध्यान धरै निश्चल होय यह जांनि जाने। निजरूपजानहीकों अनुपपदका सर्वस्व जानै । इस स्वरूपकी है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ८ ॥
जानिविना परकी मानिकरि संसारी दुःखी भये । सो परकी मानि कैसें मिटैं? सों कहिये हैं |
भेदज्ञान पर निजका अंश अंश न्यारा न्यारा जानै । मैं उपयोगी, मेरा उपयोगत्व ग्रन्थ गावैं हैं । मै देखों जानौं हौं । यह निश्चय ठीक कीये आनन्द बढै ! परपरिणति मेरी करी है । न करों तौ न होय मानि, मेरी परमैं मै करी मानि, मै निज मैं मानों, तौ मानतप्रमाणही मुक्तितैं याही सगाई अवश्य वर हौंगा । करमके भरमका विनाश निजसरम पाये होय है । सो निजसरम कैसे पाईये ? सो कहिये हैं ॥
अब
मेरा अनन्तसुख मेरे उपयोग में है । सो मेरा उपयोग तौ सदा मैं धरों हौं । मै उपयोगको भूलि अनुपयोगी मैं अनादि रत भया सुखस्थानक चेतना उपयोग भूल्या सुख कहांतें होय ? अब मै साक्षात् उपयोगप्रकाश ठावा ( योग्यस्थान ) कीया | काहेतें ? अहं नर ऐसी मानि, नरशरीर जड मैं तौ न होय, मेरे उपयोग भई है ।
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९॥ . सो ऐसा मानिका करणहार मेरा उपयोग अशुद्धस्वांगही धरि बैठा है। जैसे कोई एक है नटवा वरदका स्वांग ल्याया है, पूछ है, आपा भूल्या है, मैं नरकी पर्याय कब है है पावौंगा ? झूठेही पूछ है, नर ही है । भूलते यह रीति भई है । तैसें चिदानन्द आपा है है भूल्या है, परमैं आपा जान्या है, अपनी आप भूलि मेटै, सदा उपयोग धारि आन- है है न्दरूप आप स्वयमेवही वन्या है । विनायत्नतें निजनिहार नाही कार्य है । निजश्रद्धा है है आये निज अवलोकन होय है । यह श्रद्धा काहेरौं होय है सो कहिये हैं।
प्रथम सकललौकिकरीति” पराङ्मुख होय, निजविचारसन्मुख होय, कर्मकन्दरावि है है छिप्या है चिदानन्द राजा । नोकर्म प्रथमगुफा, दूजी द्रव्यकर्मगुफा, तीजी भावकर्मगुफा है हैं प्रथम नोकर्मगुफामैं परिणति पैठि कि, हमारा राजा देखै, तहां उसको कछु न दीसै, चक्रति है । होय रही, तब फिरिनै लगी, तब श्रीगुरुनैं कह्या कि, तूं कहा ढूंढे है ? तब वह कहने । है लगी, मेरे राजाकौं देखौं हो सो न पाया। तब श्रीगुरुनें कह्या तेरा राजा यहांही है, है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान १०॥
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है मति फिरै यहांत । तीसरी गुफा है, तहां वसे है। हाथकी डोरी इस गुफातक आई है। है है सो यह डोरी उसके हाथकी हलाई हाले है । जो वह न होय तो डोरी आपसैं न हाले है है है । तातें विचारि इस शक्ति या डोरीकी अनसूत चली जाना। कर्ममें देखि इसकी ।
क्रिया डोरीकौं कौन हलावै है ? द्रव्यकर्मगुफा अंदरी प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभाग है है वाहीके निमित्ततें नाव पऱ्या है। वाकी परिणति भई जैसी जैसी वर्गणा बंधी वहांभी है है उसकी वणाई सत्तासौं द्रव्यकर्म नाव उसके भावोंके निमित्त” नानाकर्मपुद्गलनैं नाव है है पाया । भावकर्मगुफामै राग द्वेष मोहका प्रकाशमैं छिप्या स्वरूप रहे है । वह प्रकाश तेरे है हैं नाथका अशुद्ध स्वांग है । तामैं तू खोजि, भय मति करै । निःशंक जानि यह राग है है द्वेष मोहकी डोरीके साथि जाइ खोजि, जिस प्रदेश” उठी सोही तेरा नाथ है । डोरीकौं । है मति देखे । जिसके हाथमें डोरी तिसकौं लगि तुरति मिलैगा। अपनी ज्ञानमहिमाको । है छिपाय बैठा है। तू पिछानि । यह गुप्तज्ञान भया तौऊ नाथ छिप्या नहीं। चेतना
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॥ अनुभवप्रकाश || पान ११ ॥ ..
प्रकाशरूप चिदानन्द राजा पाय सुख पावैगी। निजशर्मका उपाय कह्या । यह निजसुख उपयोग का । दुर्लभ क्यों भया है ? सो कहिये हैं |
यह परिणाम भूमिका मैं मोहमदिरा पीय अविवेक मल्ल उन्मत्त होय विवेकमल्लको जीति जयथंभ रोपि ठाढा ( खडा ) भया है जोरावर । तातें आपकी सुखनिधिका विलास न कर दे । विवेकमल्लका जोरा भये अविवेक हण्या जाय । तव निज निधि विलसिये । पररुचि खोटा आहार सेवतैं मिथ्याज्वर भई । तब विवेक निर्बल भया । तातैं स्वआचार पारा श्रद्धा बूटीके पुटसों सुधाय । ताका सेवन करे, तत्र विवेकमल्ल मिथ्याज्वर मेटि सबल होय अविवेककौं पछारे । तव आनन्द निधिका विलास होय । स्वआचार कहा || श्रद्धा कैसे हो सो कहिये हैं ||
इस अनादिसंसार में परविचार अनादि कीया। अब स्वआचार पारा सेवन करिये तौ, अविनाशी पद
मेरी ज्ञानचेतना अशुद्ध भई । भेटियै । मैं कौन हौं ? मेरा
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|| अनुभवप्रकाश ॥ पान १२॥ है स्वरूप कहा ? कैसे पाइये? प्रथम पद अपनेका उपयोगका प्रकाश है। दर्शनज्ञान है ई उपयोग चारित्र उपयोग । दर्शन देखता है, ज्ञान जानता है, चारित्र परिणामकरि है
आचरिता है । ऐसा ज्ञेयका देखना जानना आचरणा अनादि कीया अपने विशुद्धहै पदमै उपयोग न दीया । अतींद्रियसुखके लाभविना रीता रह्या । अनन्ते तीर्थङ्कर है भये तिनहूनें स्वरूप शुद्ध किया, अनन्तसुखी भये । अब मोकौभी ऐसे स्वरूप ईशुद्ध करना। है ' मुनिवर जन निरंतर स्वरूपसेवन करे हैं । तातें अपना त्रैलोक्यपूज्य सवतें उच्चहै पद अवलोकि कार्य करना है । कर्मघटामें मेरा स्वरूपसूर्य छिप्या है । कछु मेरा स्वरू- है
पसूर्यका प्रकाश कर्मघटाकरि हण्या न जाय । आवया है। वारेही वारै घटाका जोर है। है मेरे स्वरूपकू हनि न सके । चेतनाते अचेतन न करि सके । मेरीही भूलि भई । स्वपद हैं है भूल्या । भूलि मेटि जवही मेरा स्वपद ज्यौंका त्यौं वण्या है ।
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १३ ॥ जैसे कोई रत्नद्वीपका नर था। तहां रत्नके मंदिर थे। रत्नसमूहमैं रहै था । परख (कमरमें बांधनेका कटिसूत्र) न जान था। और देशमैं आया, कणगतीमैं हरिन्मणि हैं लगी थी। एकदिन सरोवर रनानको गया । जौहरीने देख्या । हन्या पाणी इसकी है १ मणिप्रभातै सरोवरका भया । तब उसपासि एक नग ले राजासमीप उस नरकौं ले है है गया। कोडि मंदिर भरै एती दीनार दिवाई। तब ओ नर पिछताया। मेरा निधान है है मैं न पिछान्या । तैसें अपना निधान आपसमीप है। पिछानतही सुखी होय है । है है मेरा आत्मा तातें ज्ञानका धारी चिदानन्द है । मेरा स्वरूप अनन्तचैतन्यशक्तिमण्डित है १ अनन्तगुणमय है। मेरे उपयोगके आधीन वण्या है। मैं मेरे परिणाम उपयोग मेरे है १ स्वरूपमैं धौंगा । अनादिदुःख मेटौंगा। सुगमराह स्वरूप पावनेका है। दृष्टिगोचर है ३ करनाही दुर्लभ है । सो संतोने सुगम कर दिया है । उनके प्रसादतें हमोनें पाया है ॥ ३ सो हमारा अखण्डविलास सुखनिवास इस अनुभवप्रकाशमैं है । वचनगोचर नाही, है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान १४ ॥ १ भावनागम्य है । यह मेरा ज्योतिःस्वरूपका प्रकाश प्रगट इस घटमैं प्रकाशता है। है छिप्या नही, गोप्य कैसा मानौं? छती वस्तुकौं अछती कैसे करौ ? छती अछती न है है होती है । पी, झूठेही छतीकौं अती मानी थी। तिसका अनादि दुःख फल भया । १ था । शरीरकों आपा कैसे मानिये ? यह तो रक्तवीर्यतै भया सात धात जड विजातीय है । विनश्वर पर, सो मेरी चेतना यह नाही । ज्ञान वर्ण वर्गणा विजातीय स्वरूपकौं वर्ण है है अचेत बंधक विनश्वर रसविपाकहीन है, सो मेरी नाही । विभाव स्वभाव मंलिन करै । १ कर्मउदयतें भया, मेरा नाहीं । मेरा चेतनापद में पाया । ज्ञानलक्षणते लक्ष्य पिछानि है है स्वरूपश्रद्धा” आनन्दकन्दकी केलींकरि सुखी हौं । सो आनन्दकन्दकी केली स्वरूप- १ है श्रद्धा कैसे होय ? सो कहिये है ॥ अनन्तचैतन्यचिन्हकौं लिये अखण्डितगुणका पुञ्ज है है पर्यायका धारी द्रव्य ज्ञानादिगुणपरिणति पर्यायअवस्थारूप वस्तुका निश्चय भया । है ज्ञान जाननमात्र, दर्शन देखवेमाल , सत्ता अस्तिमात्र, सो वीर्य वस्तुनिष्पन्न
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... . . . . ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १५ ॥ सामर्थ्यमात्रं, केवल ऐसा प्रतीत्यभाव रुचिभावकी आस्तिक्यताश्रद्धान श्रद्धा कहिये । है तिसत उपजी आनन्दकन्दमै केलिकरि सुखी हौं । जान्या आनन्द ज्ञानानन्द, स्वरूप है
देखै आनन्द सो दर्शनानन्द, परिणया आनन्द चारित्रानन्द । ऐसें सब गुणानन्द, । तिसका मूल निजस्वरूप आनन्दकन्द । तिसकी केलि स्वरूपमैं परिणति रमावणी ।। हैं तिसतै सुखसमूह भया है। और इसतै ऊंचा उपाय नांही। भव्यनकौं शिवराह सो. है हली (सहज ) यह भगवंत. बताई है। भगवन्तकी भावनातें सन्त महन्त भये ।। है मैंभी याही भावनाका अवगाढ थंभ रोप्या है । सम्यग्दृष्टीकै ऐसां निरन्तर अभ्यास है है रहै ॥ कर्मअभावते ज्ञान स्वरसमण्डित सुखका पुंज प्रगटै तब कृतकृत्य होय है। इस है है आतमका स्वरूप गोप्य हो रहा है । साक्षात् कैसे होय? भावना परोक्षज्ञानकरि बढाई है है है । सो कैसे सिद्धि होय सो कहिये हैं। है जैसें दीपकके पांच पडदे हैं। एक पडदा दुरि भये, झीणा वारीक उद्योत है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १६ ॥ भया । दूजा पडदा दूरि भया, तब चढता प्रकाश भया। तीजा गये चढता भया । चउथा गये अधिक चढना भया । ऐसें ज्ञानावरणके पांच पडदे हैं । मतिज्ञानावरण गये हैं स्वरूपका मनन कीया ॥ अनादि परमनन था, सो मिट्या। अनन्तर ऐसी प्रतीति ।
आई, जैसे कोई पुरुष दरिद्र है , करजको स्वौका है, उसकै चिन्तामणि है, तब काहूनें है हैं कह्या, इस चिन्तामणिके प्रभावतें निधि विस्तरि रहा है, काहूकौं फल दीया था, सो है है अब तुमहु निधितौ ल्यौ । साक्षात्कार भये सब फल पावहुगे । प्रतीतिमैं चिंतामणि ई पायेकासा हर्ष भया है। ऐसें मतिज्ञानी स्वरूपका प्रभाव एकदेशहीमें ऐसी जागा है
केवलज्ञानकी शुद्धत्वप्रतीतिद्वार आया सो अशुद्धत्व अंशहु अपना न कल्पै है। इ स्वसंवेदन मतिज्ञानकरि भया है। ज्ञानप्रकाश अपना है । ऐसें श्रुतमैं विचारै, मैं है है मनन कीया ॥ इ सो कैसा हौं ? ज्ञानरूप हौं, आनन्दरूप हौं । ऐसें व्यारि ज्ञानमैं स्वसंवेदनपरि
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॥ अनुभवप्रकाश || पान १७ ॥
-गतिकर तौ प्रत्यक्ष है | ज्ञान अवधिमनःपर्ययके जानवेतैं एकदेशप्रत्यक्ष । काहेतैं सर्वावधिकरि सर्व वर्गणा परमाणुमात्र देखे, तातैं एकदेशप्रत्यक्ष | मनःपर्ययहू परमनकी जाने, तातें एकदेशप्रत्यक्ष है । केवल सर्वप्रत्यक्ष है । अपना जानना ज्ञानमात्र वस्तु मैं जो प्रतीति भई, तातैं सम्यक् नाम पाया । ज्ञानमात्र वस्तु तौ केवलज्ञान भये शुद्ध, जहाँतक केवल नही तहांतक गुपत, केवलज्ञानमात्र वस्तुकी प्रतीति प्रत्यक्ष करिकरि स्वसंवेदन बढा है |
जघन्यज्ञानी कैसे प्रतीति करे ? सो कहिये हैं | मेरा दर्शनज्ञानका प्रकाशप्रदेश मेरे तैं उठे है । जानपना मेरा मै हौं । ऐसी प्रतीति करता आनन्द होय सो निर्विकल्पसुख है। ज्ञान उपयोग आवरण में गुप्त है । जानिमैं आवरण नाहीं । काहेतैं ? जेता अंश आवरण गया, तेता ज्ञान भया, तातैं ज्ञान आवरणतै न्यारा है, सो अपना स्वभाव है । जेता ज्ञान प्रगट्या तेता अपना स्वभाव खुल्या, सो आपा है | इतना
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॥अनुभवप्रकाश ।। पान १८॥ . विशेष आवरणकौं गयेहू परमैं ज्ञान जाय, सो अशुद्ध । जो जेता अंश जिनमें रहै, सो है है शुद्ध । तातें गुपत केवल है । परि परोक्षज्ञानमैं प्रतीति निरावरणकी करिकरि आनन्द है बढाईये । ज्ञानी शुद्धभावनातै शुद्ध होय, यह निश्चय है । 'या मतिः सा गतिः' इति । १ वचनात् । अपना स्वरूप साक्षात् कैसैं होय ? सो कहिये हैं ॥
प्रथम निर्मलत्वभावतें संसारके भाव अधो करें। कैसे करें सो कहिये हैं। दृश्य-है १ मान जो सब रूपी जड, तामैं ममत्व न करना। काहेतॆभी जड तामैं आपा मानै सुख हैं
कहा ? शरीरादि जड तामें आपा मानै सुख कहा? अर राग देष मोह भव भाव, असा-है १ ताभाव , तृष्णाभाव, अविश्रामभाव, अस्थिरभाव, दुःखभाव, आकुलभाव, खेदभाव, है अज्ञानभाव यातें हेय हैं ॥ आत्मभाव, ज्ञानमात्रभाव, शान्तभाव, विश्रामभाव, स्थिर-है है ताभाव, अनाकुलभाव, आनन्दभाव, तृप्तिभाव, निजभाव उपादेय हैं ।
आत्मपरिणतिमैं आत्मा है । मैं हौं ऐसी परिणतिकरि आपा प्रगटै। आपामैं है
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॥ अनुभवप्रकाश || पान १९ ॥
परिणति आई मै हौंपणाकी मानि स्वपदका साधन है । मैंमैं परिणाम में कहे हौं । मैं मैं परिणामों ने स्वपदकी आस्तिक्यताकार स्वपदपरिणामविना ठावा योग्य स्थान न होय । कायचेष्टा नही | वचनउच्चारणा नही । मन चिन्तवन नहीं । आत्मपद मैं आपकी ममता स्वरूपविश्राम, आनन्दरूप पदमैं स्थिरता चिदानन्द, चित्परिणतिका विवेक करना | चित्परिणति चिदमैं रमै, आत्मानन्द उपजै । मनदार विवेक होय परि मन उरै रहै । मन पर है ज्ञान निजवस्तु है । सो ऐसे विचारतें दूरि रहे है । काहेतैं ? परमात्मपद गुप्त है। ताकी मन व्यक्त भावना करत संके है । काहेतैं ? परमात्मभावना करत करत परमात्मपद नजीक आवै, तब परमात्मा के तेजतैं मन पहल्यौंही मरि निवरै ( निवृत्त होय ) है | काहेतैं ? सूरिमाका तेजतें कायर विनासंग्रामही मरे । सूर्य के तेजतें अंधकार पहल्योंही नाश होय जाय, तैसें जानियौ ||
चिदानन्द भावना चित्परिणति शुद्ध होय । चित्परिणति शुद्ध भये चिदानन्द
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान २०॥ है शुद्ध होय है । अनात्मपरिणाम मेटि आत्मपरिणाम करनाही कृतकृत्यपणा है । योगी है है श्वरभी इतना करे हैं । प्राणायाम, ध्यान, धारणा, समाधि याहीके निमित्त हैं। १ स्वरूपपरिणाममै अनन्तसुख भया । निजपद आस्तिक्यता भई । अनुपपदमैं लीनता है है भई । एक स्वरस भया, शुद्ध उपयोग भया । अनुभव सहजपदका भया। महिमा है है अपार आपपरिणामकी है। परिणाम आपके कीये विना परमेश्वर परपरिणामतें गोता है है खाय है । अपने परिणाम स्वरूपानन्दी भये, परमेश्वर कहाया। ऐसा प्रभाव आत्म-है है ज्ञानपरिणामका है । अपूर्वलाभ अविनाशीपदका भया परिणमन” । सो परिणाम कैसे है १ स्वरूपमैं लागै? सो कहिये हैं।
परपराङ्मुख होय वारंवार स्वपद अवलोकानिके भाव करै । दर्शन ज्ञान चारित्र है हैं चेतनाका प्रकाश वो करिकरि स्वरूपपरिणति करै । आत्मज्योति अनात्मसौं भिन्न है १ अखण्डप्रकाश आनन्दचेतनास्वरूप चिद्विलासका अनुभवप्रकाश परिणामकरि प्रकाशै । है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान २१॥ . । परिणाम जातें उठ्या तामें परिणाम लगावै । ज्ञानवारै परिणाम न करै । परिणाम , है रङ्गचेतना अङ्ग अभङ्गमैं अन्तरङ्ग लीन भया करै । अमरपुरीनिवास निजबोधके विका-३
सते व्है । निश्चय निश्चल अमल अतुल अखण्डित अमिततेज अनन्तगुणरत्नमण्डित । ब्रह्माण्डको लखैया । ब्रह्मपद पूर्ण परमचैतन्यज्योतिःस्वरूप अरूप अनुप त्रैलोक्यभूप है है परमात्मरूप पद पाय पावन होय रहै । सो अनुभवकी महिमा है ॥
यथार्थज्ञान, परमार्थनिधान , निजकल्याण, शिवस्थानरूप भगवान् अम्लानसुखवान निर्वाणनिधि निरुपाधि निजसमाधि साधिये आराधिये । अलख अज आनन्द है महागुणवृन्द धारी अवकारी सर्व दुःखहारी वाधारहित महित सुरस रससहित निरंशी कर्मको है है विध्वंसी, भव्यको आधार, भवपारको करणहार, जगत्सार, दुर्निवाग्दुःख चूरै । पूरै है पद आप भवताप पुण्यपापकौं मिटायकैं, लखाय पद आतम दरसाय देत चिदानन्द, हैं सदा सुखकन्द निरफंद लखावै, अविनाशी पद पावै, लोकालोक झलकावै, फेरि
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान २२॥
१ भवमें न आवै, सब वेद गुण गावै । ताहि कहां लौं बतावै ? वैनगोचर न आवै । यह है है परम तत्त्व है, अतत्त्वसौं अतीत जामैं नांहि विपरीत करणी, भवदुःखनकी भरणी, । हितहरणी अनुसरणी अनादिकीही मोहराजाने वनाई । जगजीवनको भाई, दुःखदाई है है ही सुहाई, या अज्ञान अधिकाई, जातें लगी बहु काई । ज्ञानरीति उरि आनी । विप-1 हरीत करणको भानी । साधकता साधि महा होइ । निजध्यान आनन्द सुधाको व्है ।
पान । मोक्षपदको निदानी इदानींही समयमैं स्वरसी वशी भये हैं । इन्द्रियचोर कसी, है है काय निरताय निहायो पद परमेश्वरस्वरूप अघटघटमैं । व्यापक अनुप चिद्रूपकौं है । लखायो। भ्रमभावकौं मिटायो। निज आपतत्त्व पायो । दरसायो देव अचल अमेव टेव । है है सासतीको निवासी सुखरासी भवसौं उदासी हो लहै। बाहरि न वहै। निजभावहीको चहै। । हैं स्वपदका निवास स्वपदमें है । बहिरङ्गसंगमैं ढूंढि ढूंढि व्याकुल भया जैसे मृग वासकौं । हैं ढूंढे, कहूं परजायगां न पावै, तैसैं पद आपकौं परमैं न पावै ॥ मोहके विकारतें आपा है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान २३ ।।
है न सूझे । सन्तनके प्रतापते गुण अनन्तमय चिदानन्द परमात्मा तुरंत पावै ॥ परपद है हैं आप जहांताई तहांताई सरागी भया व्याकुल रहै । ज्ञानदृष्टिसौं दर्शनज्ञानचारित्रकों है है एक पदस्वरूप अवलोकन करतही पर मानिकी तुरत हानि होय । रागविकार मिटतही है है वीतरागपद पावै । तब अनाकुल भया अनन्तसुख रसास्वादी होय आपा अमर करै । है है जैसे कोई राजा मदिरा पीय निन्ध स्थानमैं रति मान, तैसें चिदानन्द देहमैं रति है हैं मानि रह्या है। मद उतरै राजपदका ज्ञान होय राजनिधान विलसै, स्वपदका ज्ञान है भये सच्चिदानन्द सम्पदा विलसै ।।
कोई प्रश्न करै, ज्ञान तो जानपणारूप है, आपकौं क्यों न जानै? ताका समा-है धान, जानपणा अनादि परसौं व्यापि परहीका हो रहा है। अव ऐसा विचार करै, है ते शुद्ध होय। यह परका जानपणाभी ज्ञानविना न होय । ज्ञान आत्माविना न होय।। १ तातें परपदका जाननहारा मेरा पद है। मेरा ज्ञान मैं हौं । परविकार पर हैं। जहां जहां
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान २४॥ । १ जानपणा, तहांतहां मैं ऐसा दृढभाव सम्यक्त्व है । सो सुगम है, विषम मानि रह्या है है है। मोहमद वायो ज्ञान अमृत पीय उतरि ब्रह्मपदकौं सँभारि, डारि भवखेद, भेद है है पाय निजसौं, अभेद आपपदकौं पिछानि, त्यागि परवाणी, जाणि चिदानन्द, मोह है मानि भानिकै, गुणको ग्राम अभिराम सुखधामरूप सोही है स्वरूप । सोही भावमोइक्षको उपाय उपेयको साथै, शुद्ध आतम आराधै। योही शिवपंथ निग्रन्थ वहू साधि है है साधि, समाधिकौ पाय, परमपदकौं पहुंचै । अपना चेतनाप्रकाश मोहविकारकौं पाय,
मैला भया। भेदज्ञान जडचेतनका निखारा करै । ताकौं उरमें धरिकरि निजज्ञानका है १ अभ्यास वारंवार सार अविकार अपना अखण्डरूप जानि अनुभव उर आनि महामोह है है हठ भानि स्वरूपरस अपने स्वभावमैं है । तिस स्वभावकों निज उपयोगमैं ठावा करै ।। १ स्वरूपकी उपयोगशक्ति कर्ममें गुप्त भई तो कहा शक्तिको अभाव मानिये ।। है जैसे काहूको पुत्र घरमें है, बाजारमैं काहू. बूझ्यो, तौ कहै हमारे पुत्र है । है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान २५ ॥ अभाव न कहै। व्यवहारमैंहू यह रीति है। छतैकौं अनछतो न करै । चिदानन्द है तेरौ अचिरज आवतु है । दर्शनज्ञानशक्ति छती करि अनछती राखी है। जैसे है हैं लोटनजडीकौं (जटामांसी जिसको बिल्लीलोटन कहते हैं ) देखि बिल्ली लोटे है, तैसें है हैं मोहते संसारभ्रमण है । नै कहूं इतें स्वरूपमें आवै तो त्रिलोकको राज्य पावै । सो तो है १ दर्लभ नाहीं ॥ जैसे नर पशुस्वांग धरै तौ पशु न होय, नरही है । तैसैं आत्मा चौरा-है है सीके स्वांग करै तौऊ चिदानंदही है। चिदानंदपणो दुर्लभ नाहीं ॥ जैसे कोई काठकी है है पूतरीकौं सांची नारी मानि वाको बुलावै, चाहि करें, वाकी सेवा करै, पी, जान है
काठकी, तब पछितावै । तैसें जडकी सेवा करै है । अज्ञानी भया जडमैं सुख कल्पै है।। ज्ञानी होय जब झूठ मानि तजै॥ है जैसैं मृग मरीचिकामै जल माने है, तैसैं परमैं आपा मान है । तातें सांचे है ज्ञानतें वस्तु जानौ तबही भ्रम मिटै । वारंवार सार सांचो उपदेश श्रीगुरु कहै हैं।
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__. . . . . ॥ अनुभवप्रकाश ॥. पान २६ ॥ आपहू जाने हैं। अविद्याको आवरण है ताकरि झूठको सांच मानि रह्यो है। त्रिंबक हैं है. (तीन जगहतें वांकी ऐसी रस्सी) जेवरीमें सर्प त्रिकाल नाही, तैसें ब्रह्ममै अविद्या है
नाहीं । सो सारे समुद्रके जलसैं धोयेहू देह अपावन है । ताकौ पावन मानि रह्यौ है ।। है. ऐसी पिठौंही पकरी है । जोरावरी ठीकरीको रुपयो चलावै सो न चालै । अपनी भूलिए हैन तजै तो अपनी हांसी खलकमैं आप करावै । के देखो अनन्तज्ञानको धनी भूलि है हैं दुःख पावै है। हांसीके भये जन सरमिंदो होय । फेरि हांसीको काम न करै। याकी है । अनादिकी जगतमैं हांसी भई है । लाज न पकरै है । फेरि फेरि वाही झूठी रीतीकौं पकरै । है. है । जाकी बातहूके कीये अनुपम आनन्द होय, ऐसो अपनो पद है। ताकौ तौ न ग्रहै। है है परवस्तुकी ओर देखतही चौरासीको बंदीखानो है, ताकौं बहोत रुचिसेती सेवै है। ऐसी है ३: हठरीति विपरीति-रूपको अनुप-मानि मानि हर्ष धरै है। जैसैं साँपको हार जानि हाथ है घालो तौ दुःख होयही होय तैसें रुचिसेती. परसेवनतें.संसारदुःख होयही होय ॥
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॥ अनुमवप्रकाश ॥ पान २७॥ . जैसे एक दृष्टिबन्धवालो नर एक नगरमें एक राजाके समीप आय रह्यो । केतक है दिनपीछे राजा. मूवौ । तब वा नरनैं राजाको मूवो न जनायो। राजाको तो बहुत है उंडों गाडि माटी दे, ऊपरि बेमालुम जायगां करि दृष्टिबन्धसौं काठकों राजा दरवारमैं । हैं बैठायो । दृष्टिबंधसूं सबकौं सांचौ भासै । जब कोई राजाको बूझै, तब वो नर जुबाव दे, है है तब लोक जानै, राजा बोले है । ऐसो चरित्र दृष्टिवन्धसौं कीयो । तहां एक नर है
वनकी बूंटी सिरपरि टाँगि आयो, उस बूँटीके वल” वाकी दृष्टि न बंधी। तब वह है नर लोकको कहने लाग्यो, रे कुबुद्धि जन हौ! काठको प्रत्यक्ष देखिये है। तुम याकौ है है साचौ राजा जानि सेवो हो, धिक्कार है तुमारी ऐसी समझिको। तैसैं ये संसारी सब है है. इनकी दृष्टि मोहसौ बंधी, परको आपा मानि सेवै हैं । परमैं चेतनाका अंशहू नाही।।. है ज्ञान जाकै भयो, सो ऐसै जाने है, ये संसारी कुबुद्धि जडमैं आपा करि मान हैं। है । दुःख सहे हैं। धिक्कार इनकी समाझिकौं! झूठ हठ दुःखदायको सुखदायक जानि सेवै हैं !! है।
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॥ अनुभवप्रकाश || पान २८ ॥
जैसें काहूको जन्म भयो, जन्मतेंही आँखि परि, चामडीको लपेटो चल्यो आयो माहिसूं आँखिको प्रकाश ज्योंको त्यों बाह्य चर्म आवरणसौ आपको न दरसे । जब कोऊ तबीब मिल्यो, तानें कही, याकै मांहि प्रकाश ज्योतीरूप आखि सारी है । वा जतनकरि चर्मको लपेटो दूरि कीयो, तब शरीर आपकों आपही देख्यौ, औरभी दरसै लाग्यौ । याप्रकारि अनादि ज्ञानदर्शन नैन मुद्रित भये चले आये आप स्वरूप न देख्यौ । जब श्रीगुरु तबीब (नेत्रवैद्य) मिले, तब ज्ञानावरण दूरि करणको उपाय बतावतही याकै श्रद्धान करि दूरिही भयो । तब आपणौ अखण्ड ज्योतिःस्वरूप पद आप देख्यो, तब अनन्तसुखी भयो |
जेवरी में सांप नही, सीपमैं रूपो नही, भाडली मैं ( मृगतृष्णा ) जल नही, काचमन्दिरमैं दूजो स्वान नही, मृगबारें बास नही, नलनीको सूवो काहूनें पकन्य नहि, वानराकी मूठी काहू पकरी नहि, सिंह कूवामैं दूजो नहीं, ऐसैं कोऊ
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान'२९॥ ..' १ दूजो नही, आपहीकी भूलि झूठी, तातें आप दुःख पावै है। दुजो मानि मानि है है दुःख पावे है। सांच जानै सदा सुखी होईयै ॥ यह आत्मा सुखके निमित्त अनेक है है उपाय करे है । देश देश फिरै, लक्ष्मी कमाय सुख भोगवै । अथवा परीषह अनेक हैं
सहै, परलोक सुखनिमित्तका निधान निजस्वरूपको न जानै । जानै तो तुरत है सुखी होय ॥
जैसैं सब जनकी गांठडीमें लाल हैं, वै सब मसकती होय रहे हैं। जो गठडी ई खोलि देखै, तौ सुखी होय । अन्धले तो कूपमैं परै अचिरज नहीं। देखता परै तो है है अचिरज । तैसें आत्मा ज्ञाता द्रष्टा है, अरु संसारकूपमै परै है, यह वडा अचिरज है। है मोह ठगर्ने ठगोरी इसके सिर डारी, तिसत परघरहीकौं आपा मानि निजघर भूल्या है, ३ ज्ञानमन्त्र" मोह ठगोरीनें उतारै, तब निजघरकौं पावै । वारवार श्रीगुरु निजघर पाय- है वेको उपाय दिखावै है। अपने अखण्डित उपयोगनिधानकौं ले अविनाशी राज्य है
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.. ' ' .. .... ॥ अनुभवप्रकाश ।। पान ३०॥ . . है करि । तेरी हरामजादगीते अपना राजपद भूलि कौडी कौडीकौं जांच कंगाल भया । है है । तेरा निधान ढिगही था, तें न संभाल्या । तातें दुःखी भया ॥ है जैसे चांपा. ( नामका ) गवाल धतूरैकों पीय उन्मत्त भया मैं चांपा नाही, है १चांपाके घर पीछे ठाढा होय हेला दीया, चांपा घरि है? तब उसकी नारीनें कह्या, तूं। है कौन है ? तव चेत भया मै चांपा हौं । तैसैं श्रीगुरु आपा बताया है। पावै ते सुखी है होय । कहांलौं कहिये ? यह माहिमानिधान अम्लान अनूपपद आप वण्या है, सहज इ १. सुखकन्द है, अलख अखण्डित है, अमिततेजधारी है ॥ दुःखद्धन्दमैं आपा मानि ई 'अति आनन्द मानि रह्या है । अनादिहीका सो यह दुःखकी मूल भूलि जवही मिटै, है है श्रीगुरुवचन सुधारस पीवै । चेत होय परकी ओर अवलोकन मिटै । स्वरूप स्वपद है .देखतही तिहूं लोकनाथ अपना पद जानै । विख्यात वेद वतावै हैं ।।
नटवा स्वांग धरे नांचे है । स्वांग न धरै पररूप नाचना मिटै। ममत्वतें पररूप
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. . ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान-३१॥
. . . होय होय चौरासीका स्वांग धरि नांचे है। ममत्व मेटि सहजपदकों भेटि थिर रहैं, तो · नांचना न होय । चंचलता मेटै चिदानन्द उधरै है, ज्ञानदृष्टि खुलै है । नैक स्वरूपमैं हैं ... सुथिर भये गतिभ्रमण मिटै है । तात जे स्वरूपमैं सदा स्थिर रहैं, ते धन्य हैं।
अपनी अवलोकनिमें अखण्ड रसधारा वर्षे है, ऐसा जानि, निज जानि, पर है - मेटि, 'यह मैं सुखनिधान ज्योतिःस्वरूप परमप्रकाशरूप अनुपपदरूप स्वरूप है इस आकाशवत् अविकारपदमैं चिदिकार भया, परसंयोगते । इहां तौ परके हैं . अवकाश न था । कैसैं अनादि ठहया? तहां कहिये हैं ॥ नकखानमैं कनक चिरहीका गुप्त है । तैसें आत्मा कर्ममें गुप्त अनादिहीका है। ६ अनादित अशुद्ध उपयोग अशुद्धता लगी है, सो देखि। कैसे लगी है,
ध मान माया लोभ इन्द्रिय मन वचन देह गति कर्म नोकर्म धर्म अधर्मः।
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ३२ ।।. है आकाश काल पुद्गल अन्यजीव जीतनेक परवस्तु हैं तितने आपकरि जानिये है । सो है मैही हौं, मै इनका की हौं, यो मेरे काम हैं, "मै हौं सो ये हैं, ये हैं सो मै हौं”, हैं ऐसे परवस्तुकौं आपा जानै, आपकू पर जानै, तब लोकालोककी जाननेकी शक्ति है १ सर्व अज्ञानभावकू परणई है। सोई जीवको ज्ञानगुण अज्ञानविकार भया। यौही जीवका है १ दर्शनगुण था। जेते परवस्तुके भेद हैं, तिनकौं आपकरि देखे है, ये मै हाँ, आपा परमैं है है देखे है, आपाकों पर देखै हैं । लोकालोक देखनेकी जेती शक्ति थी, तेती सर्व शक्ति । है अदर्शनरूप भई । यौकरि जीवका दर्शनगुण विकाररूप परणम्या । अर जीवका सम्यहै क्त्वगुण था, सो जीवके भेदनकौं अजीवकी ठीकता करै है। चेतनकौं अचेतन, अचेत- १ इनकौं चेतन, विभावकों स्वभाव, स्वभावकौं विभाव, द्रव्य अद्रव्य, गुण अगुण, ज्ञानकों है है ज्ञेय, ज्ञेयकों ज्ञान, आपकौं पर, परकों आप यौहीकरी और सर्व विपरीतिकौं ठीकता है १ आस्तिक्य भावकों करै है । यौं जीवका सम्यक्त्व गुण मिथ्यारूप परणम्या। और जीव है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ३३ ॥
है स्वआचरण गुण था, जेतीक परवस्तु है तिसी परकौं स्वआचरणकरि कीया करै, है परविर्षे तिठ्या करै, परहीकौं ग्रह्या करै, अपनी चारित्रगुण सब शक्ति परविर्षे लगि है है रही है, यौँ जीवका स्वचारित्रगुण विकाररूप परिणमै है ॥
अवर इस जीवका सर्व स्वरूप परिणमनेका बलरूप सर्व वीर्यगुण था, सो निर्वल है रूप होय परिणम्या स्वरूपपरिणमनेका बल रहि गया निर्वल भया परिणम्या। याकरि है जीवका वीर्यगुण विकाररूप परिणम्या ।। अवर इस जीवका आत्मस्वरूप रस जो परमा-है १ नन्द भोगगुण था, सो परपुद्गलका कर्मत्व व्यक्त साता असाता पुण्यपापरूप उदय है है परपरिणामके बहुभांति विकार चिद्विकार परिणामहीका रस भोगव्या करै रस लीया है है करै, तिस परमानन्द गुणकी सर्वशक्ति परपरिणामहीका स्वाद स्वाद्या करै । सो परस्वाद । । परम दुःखरूप । यौंकरि जीवका परमानन्दगुण दुःखविकाररूप परणम्या ॥ यौहीकरि है है इस जीवके अवर गुण ज्योज्यौं विकारी भये हैं, त्योत्यौं ग्रन्थान्तर जानि लेने ॥
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ३४ ॥ इस जीवके सर्व गुणहीके विकारको चिदिकार नाम सङ्क्षपसू कहना ॥ गुण है है गुणकी अनन्ती शक्ति कही सत्ताकी है शक्ति अनन्तगुणमैं विस्तरी । सब गुणकी है है आस्तिक्यता सत्ता” भई । सत्ता. सासता सबकौं राख्या। अनन्तचेतनाका स्वरूप है १ असत्ता होता तो चिच्छक्तिरूप चेतना अविनाशी महिमा न रहती। सच्चिदानन्द है है विना अफल भये किस कामके ? तातें सच्चिदानन्दरूपकरि आत्मा प्रधान है । अरूपी है है आत्मप्रदेशमैं सर्वदर्शनी सर्वज्ञत्व स्वच्छत्व आदि अनन्तशक्तिका प्रकाश है , ते उपयो१ गके धारी अविकारी कर्मत्वकरि आवरै, सङ्कोचविस्तार शरीराकार भये । आत्मा है है आकाशवत् कैसे सङ्कोचविस्तार धरै ? पुद्गल संकुचै विस्तरै, तो काष्ठ पाषाण घटते है है बढते होय । सो चेतनाविना न बढे । चेतनही वढे घटै, तो सिद्धके प्रदेशका विस्तार है । होय के घटि जाय, सोभी नाही। जडचेतन दोन्यौं मिले संकोच विस्तार है। परदे-है १ शमैं सब गुण कहे हैं । परि संसार अवस्था” मोक्षमार्गकी चढि न भई । तहां सम्यग्द-है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ३५ ॥ र्शनज्ञानचारित्र मोक्षमार्ग कह्या । इनकी जेती जेती विशुद्धि होत भई, तेता है मोक्षमार्ग भया ॥
निश्चयमोक्षमार्ग दोयप्रकार, सविकल्प निर्विकल्प । मै “अहं ब्रह्म अस्मि" ऐसा है भाव आवै निर्विकल्प वीतराग स्वसंवेदन समाधि कहिये । लोकालोक जाननेकी शक्ति है है ज्ञानकी, स्वसंवेदन जेता भया, तामें स्वज्ञानविशुद्धताके अंश होत भये । सो ज्ञान है है सर्वज्ञशक्ति में अनुभव कीया। जेता ज्ञान भया शुद्ध, तेता अनुभवमैं सर्वज्ञानकी, है प्रतीतिभाव वेदना ऐसा भया । सर्वज्ञानका प्रतीतिभावमें आनन्द बढ्या । ज्ञान विमल है है अधिक होत भया । ज्ञानकी विशुद्धताकौं ज्ञानके बलका प्रतीतिभाव कारण है । ज्ञान, है परोक्ष है । परपरिणतिके बल आवरणके होतेभी उस स्वसंवेदनमैं स्वजातिक सुख भया. है ज्ञानस्वरूपका भया । एकदेश स्वसंवेदन सर्व स्वसंवेदनका अङ्ग है । ज्ञानवेदनामैं वेद्या है है जाय है साक्षात् मोक्षमार्ग है । स्वसंवेदन ज्ञानीही जान है । स्वरूपते परिणाम वारै भया, है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ३६ ॥
है सोही संसारस्वरूपाचरणरूप परिणाम सोही साधक अवस्थामैं मोक्षमार्ग, सिद्धि अव-ई है स्थामैं मोक्षरूप है। जेता जेता अंश ज्ञानबलते आवरण अभाव भया, तेता तेता अंश मोक्ष है ईनाम पाया। स्वरूपकी वार्ता प्रीतिकरि सुणै, तौ भावी मुक्ति कही । अनुपम सुख है हैं होय अनुभव करै, तिनिकी महिमा कौन कहि सकै? है जेता स्वरूपका निश्चय ठीक भावै, तेता स्वसंवेदन होय एक भये, तीनौंकी है हैं सिद्धि है । गुप्त शुद्धशक्ति सिद्धिसमानमैं परिणति प्रवेश करै । ज्यौं ज्यौं शुद्धताकी है प्रतीतिमैं परिणति थिर होय, त्यौं त्यौं मोक्षमार्गकी शुद्धि होय । ज्यौं कोई अधिक है कोस चालै तब नगर नजीक आवै, त्यौं शुद्धस्वरूपकी प्रतीतिमैं परिणति अवगाढ है गाढ दृढ होय , मोक्षनगर नजीक आवै । अपनी परिणति खेल आप करि आप भव१ सिन्धुर्ते पार होय । आप विभावपरिणतिनै संसार विषम करि राख्या है। संसार है है मोक्षकी करणहारी परिणति है । निजपरिणति मोक्ष, परपरिणति संसार । सो यह सत्स है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ३७ ॥ गते अनुभवी जीवनिके निमित्ततें निजपरिणति स्वरूपकी होय, विषम मोह मिटै, है १ परमानन्द भेटै । स्वरूप पायवेका राह संतोंने सोहिला ( सरल ) कीया है ॥
चौरासी लाख योनि सरायका फिरनहारा कबहू कहूं थिररूप निवास न कीया।। है जबतक परमज्योति अपनें शिवघरकौं न पहुंचे, तबतक कार्यभी न सरै । कहा भया है है जो तपी जपी ब्रह्मचारी यति आदि बहुत भेष धरै, तो तातें निज अमृतके पीवनेते है
अनादि भ्रम खेद मिटै । अजर अमर होय तत्त्वसुधा सेवनेका मार्ग कहा ? सो है हैं कहिये हैं | है अपने चिदानन्दस्वरूपकौं अवलोकि अनुभव करि। कैसे ? सकल अविद्यार्ते मुक्ति १ तत्त्वकी कौतूहली होय । निजानन्द केलि कलाकरि स्वपदकौं देखि । अनातमका सङ्ग
फिरि न रहै अनादिमोहके वशते । निज हितअहितमै भेदज्ञानतें ज्ञानचेतनका अनुभव हैं करि अनादि अखण्ड ब्रह्मपदका विलास तेरै ज्ञानकटाक्षम है।
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॥ अनुभवप्रकाश ।। पान ३८ ॥ अज्ञानपटल जब मिटै, सद्गुरुवचन अञ्जनौं पटल दुरि भये ज्ञाननयन प्रकाशै, है है तब लोकालोक दरसै । ऐसा ज्ञान ताकी महिमा अपार, अनेक मुनि पार भये । ज्ञानहै मय मूरतिकी सूरतिका सेवन करि करि अपने सहजका ख्याल है । परपरमैं विषम है हैं है। सहज बोध कलाकरि सुगम, कष्टक्लेशतें दूरि है । काहेत ? अफीम खाये विषकी हैं १ लहरी तुरत चढे । अमृतसेवनः सुरततृप्ति हो सुख पावै । तैसें कर्मसंक्लेशमैं शान्त पद हैं
नहीं। अनन्तसुखनिधानस्वरूप भावनाके करतही अविनाशी रस होय, ता रसकौं । है संत सेय आये । तूं ताकौं सेय । श्रेयपदरूप अनूप ज्योतिःस्वरूप पद अपनाही है। है हैं अपनें परमेश्वरपदका दूरि अवलोकन मति करें। आपहीकौं प्रभु थाप्या, जाकौं नेक है है यादि करि, ज्ञानज्योतिका उदय होय, मोह अन्धकार विलय जाय, आनन्दसहित है हैं कृतकृत्यता चित्तमैं प्रकटै । ताकौं बेगि अवलोकि , आन ध्यानता निवारि विचारिकै है है संभारि, ब्रह्मविलास तेरा तोमें है । यातें कहा अधिक ? जो, याकों छोडि तूं परकौं घ्यावै ।
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॥अनुभवप्रकाश ॥ शान ३९ ॥ है च्यारि वेद भेद लहि, गहि स्वरूप सुखरूप तेरी भावनामै अविनाशी रस चोवा चूवै है है । सो भावनाकरि भ्रमभाव मेट, तेरी भावनाही झूठेही भव बनाया है । ऐसा बदफैल है ई स्वभाव कल्लोलके प्रगट होतेही मिटै है ॥
देखि, तूं चेतन है । जड अजान है। तें अजानमैं आपा मान्या, अशुद्ध भया, तेरी लैर अजान न परै है। तूं अपने पदते ईधैंकों (इधरको) मति आवै । तेरा जड कछु पल्ला न पकरै है । अनाहिक (व्यर्थही) बिरानी वस्तुकौं अपनी करि करि झूठी हौंस करै । यह हमें भोगसुख भया, हम सुखी हैं। झूठी भरम कल्पना मानि मोद करै है। है किछुभी सावधानीका अंश नाही । यह कोई अचिरज है, तिहूं लोकका नाथ है हैं होय अपने पूज्यपदकौं भूलै । नीच पदमैं आपा मानि विकल होय व्याकुलरूप है १ भया डाले है॥ है जैसे कोई एक इन्द्रजालका नगरमै रहै । तहां इन्द्रजालीके वश हुवा इन्द्रजा- है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४०॥ लके हाथी, घोरे, नर, सेवक , स्त्री सव: तिसमैं काहूको हकम करै है। सेवक आय सलाम करै, स्त्री नृत्य करै। हाथी चहै। घोडा दौडावै । इन्द्रजालमैं सांचि जाने । विकलता धरि कबहूं काहूके वियोगतै रोवै । दुःखी होय छाती कूटै । कबहू काहूका लाभ मानि मोद करै । कबहू शृङ्गार वनावै । कवह फौज देखै । सब कहै इन्द्रजाल
झूठा है, उनमैं रंच सांच नांही। ऐसे देव, नर, नारक, तिर्यंचके शरीर जड हैं। है चेतनका अंश नांही, भ्रमतें शृङ्गारै । खान पान चोवा ( अर्क चूआ) लगावनादि है १ अनेक जतन करें। झूठहीमैं मोद मानि मानि हरखै । मूवैसौं जीवता सगाई करै! है
कार्य कैसैं सुधारै? है जैसे श्वान हाडको चावै, अपने गाल गल मसोडेका रक्त उत्तरै, ताकौं जाने।
भला स्वाद है! ऐसे मूढ आप दुःखमैं सुख कल्प है! परफंदमैं सुखकन्द सुख माने! है अमिकी झाल शरीरमै लगे, तब कहै, हमारे ज्योतीका प्रवेश होय है। जो कोई है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४१ ॥
अनिझालं बुझावै, तासौँ लरै ! ऐसें परमैं दुःखसंयोग, परका बुझावे तास शत्रुकीसी दृष्टि देखे ! कोप करै ! इस परजोग मैं भोग मानि भूल्या, भावना स्वरसकी यादि न करै । चौरासी मैं परवस्तुकों आपा मानै । तातैं चोर चिरहीका (चिरकालका ) भया । जन्मादि दुःखदण्ड पाये तौहू चोरी परवस्तुकी न छूटे है । देखो ! भूलि तीहूं लोकका नाथ नीचपरकै आधीन भया । अपनी भूलितैं अपनी निधि न पिछानै । भिकारी भया डोलै है । निधि चेतना है सो आप है । दूरि नांही । देखना दुर्लभ है । देखे सुलभ है ॥
किसीनें पूछा, तूं कौन है ? वा कया, मैं मडा (मुर्दा मरा हुवा ) हौं तो बोलता कौन कह ? मैं जानता नाहीं । तौ मैं मडा हौं ऐसा किसने जान्या ? तव सँभाया, मैं जीवता हौं । ऐसें यह मानै, मैं देह हौं तो यह देह मैं जो मानना कीया सो कौन है ? कहै, मैं न जानौं ऐसा ल्यावना किसने कीया ? यह आपाको खोजि देखने
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॥ अनुभवप्रकाश || पान ४२ ॥
जानने परखने में स्वरूप संभारै, तब सुखी होय है । जैसें कोई मदिरा पीय उन्मत्त पुरुषाकार पाषाण थंभकौं देखि सांचा जानि उससौं लय । वह ऊपरि आप नीचे आपही भया । वाकौं कहै, मैं हाय । ऐसें परकौं आपा मानितें दुःखी भया । कोई दूजा नाही | दुःखदाता तेरी भावना भव बनाया, नापैद पैदा कीया, अचेतनकौं चलाया मूवैका जतन अनादिका करता है । आपसा तू करता है झूठी मानिमैं तेरा कीया कछु जड चेतन न होय । तूंही ऐसी झूठी कल्पनातें दुःख पावता है । तेरा क्या फायदा है ? तूही न विचारे है । मेरा फंद मै पारत हौं । कछु सिद्धि नांही । विनु विचारतें अपनी निधि भुल्या । अनन्तचतुष्टय अमृत मैला कीया । चेतना मेरा पाड्या फंद ऐसा है । आकाश बांधा है । अचरज आवै है । परि जो केवल अविद्या याही होती तो तू न आवया जाता ॥
अविद्या जड छोटी शक्ति, तेरी मोटी शक्ति, न हती जाती । परी तेरि शुद्ध
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॥ अनुभवप्रकाश ।। पान ४३॥
है शक्तिभी बडी, तेरी अशुद्धशक्तिभी बडी । तेरी चितवनी तेरै गरै परी । परकौं देखि है आपा भूल्या। अविद्या तेरीही फैलाई है। तूं अविद्यारूप कर्म न परि आपा न दै, है तौ किछु जडका जोर नही । तातें अपरंपार शक्ति तेरी है । भावना परकी करि भव करता भया । निजभावनाते अविनाशी अनुपम अमल अचल परमपदरूप आनन्दघन
अविकारी सार सत् चिन्मय चेतन अरूपी अजरामर परमात्माकौं पावै है। तो ऐसी है भावना क्यों न करिये? इस अपने स्वरूपहीमैं सर्व उच्चत्व सकलपूज्य पद परमधाम
अभिराम आनन्द अनन्तगुण स्वसंवेदरस स्वानुभव परमेश्वर ज्योतिःस्वरूप अनूप देवाहै धिदेवपणे इत्यादि सब पाइयै । तातें अपणौ पद उपादेय है। अर अवर पर हेय है। है एकदेशमात्र निजावलोकन ऐसा है । इन्द्रादिसम्पदा विकाररूप भास है। जिसकै भये है तैं अनन्त सन्त सेवन करि अपने स्वरूपका अनुभव करि भवपार भये । तातें अपने १ स्वरूपकौं सेवौ ॥
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४४॥ सर्वज्ञदेव. सव उपदेशका मूल यह बताया है, एकवेर स्वसंवेदरसका स्वादी होय है है तो ऐसा आनन्दमैं मम होय, परकी ओर फिरि कबहू दृष्टि न दे। स्वरूपसमाधि है है सन्तनका चिन्ह है । चिसके भये रागादि विकार न पाइये जैसैं आकाशमैं फूल न है है पाइये । देह अभ्यासका नाश अनुभवप्रकाश चैतन्यविलास भावका लखाव लखि ल-है १क्ष्यलक्षण लिखनेमैं न आवै । लखै सुख होय । स्वादरूप लिखै न होय । आत्मसहित है हैं विश्व व्याख्येय, व्याख्या वाणीकी रचना, व्याख्याता व्याख्यान करनहार ये सब बात है है कछु है, सो मोहके विकारौ मानिये हैं। अनादि आत्माकी आकुलता एक विशुद्ध । हैं वोधकलाकरि मिटै है । तातै सहजवोधकलाका निरन्तर अभ्यास करो । स्वरूपआनन्दी है है होय भवोदधिकों तिरौ ॥ .
नरभव कछु सदा तौ रहै नहि, साक्षात् मोक्षसाधन ज्ञानकला इस भवविना है है और जायगा न उपजै । तातें वाखार कहिये है, निजबोधकलाके बलकरि निजस्वरूपमैं है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४५॥ रहौ । निरन्तर यह यत्न करौ । ऐसा कहाव तौ बारबार बालकहू न करावै । तुम अन- ३ है न्तज्ञानके धनी होयकरि ऐसी भूलि धरौ, सो बडा अचिरज आवै है। सो अचिरजकी है है बात न करियै । वा महाजड शरीरमैं आपा मानै मोटी हानि है। आपकी जानिमें है है सुखसमुद्रकू पाय अविनाशिपुरीका राजा होय, अनन्तचैतन्यशक्तिराजधानीका है । विलासी होय है । परमैं आपा मानि तूं ऐसे दुःख पावै, जैसे कोई मडेको वस्त्र आभू-३ १ षणादि करै, मानै मै पहरै है! तो जीवता झूठही आपका मानै है। ऐसे देह जड है ।। है । याके भोग तूं आप मानि झूठही काहेकौ जडकी क्रिया आपकी मानै ? जैसैं साँप , है कास्कौं काटे, काहूकौं विष चढे, तौ अचिरज मानियै । जड खाय पहरै, स्नानचोवादि ।
(तैलमर्दन) क्रिया करै, तुम कहो हम खाया, हम भोग कीया, परके स्वामी भये । सो हैं परस्वामीभी यौँ न माने । जैसे राजा किङ्करनका स्वामी है । उनके धाये (भोजनसे तृप्त है १ हुये) यौं न कहै धाया हौं । अर तुम देखो, तुमारी ऐसी चाल तुमहीकौं दुःखदायी है ॥ है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ४६॥ जो सुन्दर वस्तु होय तौ ऊपरिकी अङ्गीकार न कीजै। देह अशुचि नवद्वार है है सवै, दीखतहीकी ग्लानिरूप, मांहि सुन्दर होय, तौ वाहिरमें बुरी परी है । सो मांहि है १ विष्ठामूत्रकी खानि न विनसै, तो ऐसीहूं लीजै। विनसौह जौ आपकौं दुःखदायी न है है होई, तौ, तातें ऐसैंको स्नेह तुमही करौ। जन्मादिदुःख भरौ । तुमारी लार जन्मादि । है अनादिके लगे आये हैं। तूं मोनें महन्तपुरुषोंकीसी रीतिका भाव किया है, जो । हैं हमसौं लगै, तिनकौं न छोडै । यौं तौ महंत न कहावोगे। महंत तौ पापकों मेटै हु हैं होय । ये तो पापका रूप है । तातें तुम समझो। अपने धनको अंग जो विराना धन है है जाता रहै तुम फेरि ग्रहौ, ताके दण्ड भवदुःख सही हो, तोऊ परको लेते थके नाही । । है बहुत दुःखी भये परि परग्रहणकी वाण न छोडो हो । साहपद तो अपने धनतें पावोगे। है यात स्वपरविवेकी होय आत्मधन ग्रहौ । परका ममत्वकौं स्वप्नांतरमै मति करौ । तुमार है अखण्ड रत्नत्रयादि अनन्तगुणनिधान है दरिद्री नाही। जो दरिद्री होय सो ऐसे काम करै।। है
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॥ अनुभवप्रकाश ।। पान ४७॥
तुमारा निधान श्रीगुरुनै तुम दिया अब संभारि सुखी होहु । जैसे काहू है है नारीनें अपनी सेजपरि काठकी पूतरीकों सिंगारी सुवाणी, पति आया तब यौं जानै, है
मेरी नारी शयन करी है। हेला दे, वा न वोले, तव पवनादि खिजमति सारी रात्रि। विर्षे करी । प्रभात भया, तब जानी मै झूठही सेवा करी । ऐसें देहको सांचा आपा है है मानि सेवै है । ज्ञान भये जानै, यह झूठ अनादि देहमैं आपा मान्या। चिदानन्द है है तुम इन्द्रिय पंच चोर पोषौ हो; जानौ हौ यह हमकौं सुख दे हैं! सो अन्तरके गुण- है है रत्न ये चोर ले हैं, तुमकौं खबरी नांही । अब तुम ज्ञानखड्ग संभालौ । चोरनको ऐसे है है रोको फेरि बल न पकरै । विषयकषाय जीति निजरीतिकी राहमैं आवौ । अर तुम है है शिवपुरको पहुचि राज करौ । तुम राजा, दर्शनज्ञान वजीर राजके थंभ, गुण वसति, अनन्तशक्ति राजधानीका विलास करौ। अभेद राज राजत तुझारा पद है। अचेतन है अपावन अथिरसों कहा स्नेह करौ ? ॥
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४८॥
नीकै निहारो। इस शरीरमन्दिरमैं यह चेतनदीपक सासता है । मन्दिर तौ छूटै इ है परि सासता रतनदीप ज्यौंका त्यौं रहै । व्यवहारमें तुम अनेक स्वांग नटकीज्यौं घरे। है है नट ज्यौंका त्यौं रहै । वह स्पष्टभाव कर्मको है । तौऊ कमलिनीपतकीनाई कर्मसौं न । है बंधै, न स्पशैं । अन्य अन्य भाव मांटी धरैह एक है । तैसे अन्य अन्य पर्याय धरैहू । है एक है । समुद्र तरङ्गकरि वृद्धि हानि करै, समुद्रत्वकरि निश्चल है, विभावकरि वृद्धि हानि । । करै। वस्तु निज अचल है । सोनों वान भेद परि अभेद, यो नानाभेद कर्मते, परि वस्तु । है अभेद । फटिकमणि हरी लालपुडीतैं भासै , स्वभाव श्वेत है। परसौं पर, निज चेतनामैं पर
नही । षड्भाव ऊपरि ऊपरि रहै । जलपरि सिवालकीनाई गुप्त शुद्धशक्ति तेरी चिदानन्द है है व्यक्त करि भाय ज्यों व्यक्त व्है । तूं अविनाशीरसका सागर । पररस कहा मीठा देख्या? है है जाके निमित्तै संसारकी घुमेरी भई, ताहीकौं भला जानि सेवै है। जैसैं मद पीवनहारा मद है हैं पीवता जाय, दुःख पावता जाय, अधिक घुमेरीमैं भला जानि जानि सेवैः तैसें भूला है। है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४९ ॥ जैसैं एक नगरमैं एक नर रहै । नगर सूना, तहां दूजा और नाहीं, सो वो नर उस नगरमैं चौरासी लाख घरि, तिन घरनकौं सदा सवायही करै, फिरि दूजे दिन है फिरि औरमैं रहै, तब वाको संवारै । इस भांति उन भीतडेको संवारतें सवारतें सारा जन्म वीता। उनके संवारनेरौं रोग भया । जवका संवारै था तबहीका रोग लग्या । आपकी परमचातुरकौं भूल्या । वा नरकों बडी विपत्ति, विनाप्रयोजन एकला सूने घरनमैं मसकति उनकी करै । आप अनन्तवलवान वृथा भूलि दुःख पावै है । इस
नरका शहर एक परमवसतीका, वहांका यह राजा है, वहांकों संभालै तौ सूने घरहै नकी सेवा तजै, वहांका राज्य करै । तैसैं यह चिदानन्द चौरासी लाख योनिके शरीहै रनकी संवारना करै । जिस घरमें रहै वसै संवारै, फिरि दूजी शरीर झोपडीकौं संवारै, है फिरि और पावै, उसको संवारता फिरै । सब देह जड, तिन जडनकी सेवा करते है करते अनादि वीता । इस शरीरसेवामै कर्मरोग अनादिका लग्या आया । तिसते इस
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NA
॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ५०॥
है रोगकरि अपना अनन्तवल छीन पऱ्या, वडी विपत्ति जन्मादि भोगवै है । जडनकों है है ऐसा मान है, मैही हौं ।
वानर एक कांकरा पडै, तब रोवै, ऐसे याके एक अङ्गभी देहका छीजै, है है तो वहुते रोवै । ये मेरै, मै इनका झूठही ऐसे जडनके सेवनतें सुख मानै । अपनी है शिवनगरीका राज्य भूल्या, जो श्रीगुरुके कहै शिवपुरीकौं संभालै, तो वहांका आप है १ चेतनराजा अविनाशी राज्य करै। तहां चेतना वसती है । तिहुँ लोकमैं आन फिरै न है है भवमें फेरि जडमैं न आवै । आनन्दघनकों पाय सदा सासतां सुखका भोक्ता होय है है सो करिये ॥
यह परमातम पुरुष तिसकी निजपरिणति अनन्तमहिमारूप परमेश्वरपदकी रम- है है णहारी, सोही मूलप्रकृति पुरुषप्रकृतिका विवेकरूप तरु, तिसके निजानन्द फल तिसकौं । है तूं रसास्वाद लेकरि सुखी होहु । जैसे कोई राजाको विरानां गढ लेना मुसकिल, तैसें है
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॥ अनुभवप्रकाश। पान ५१ ॥
इस आतमाकों परपद लेना मुसकिल है। काहेरौं अनादि परपद लेता फिरै है । परि है है पररूप न भया, चेतनही रह्या । अरु चेतनापद आतमाका है, इसकौं न भी जान है, है है भूल्या फिरै है, तौभी वाकी रहणी निश्चयकरि याहीमैं , यातें मुसकिल नाहीं, अपना है । स्वरूपही है । भ्रमका पडदा आपहीनें अनादिका कीया है। तातें ना भासै है, आप है है आपकौं । परि आप आपकौं तजि बाहरि न गया ॥ है जैसे नटवे. पशुका वेष धन्य तौ वह नर नरपणाकौं तजि वा न गया। पशु है १वेष न धरै तौ नरही है । भ्रम” परममत्व न करै, तौ देहका स्वांग न धरै, तो चिदा-है है नन्द जैसैका तैसा रहै । जैसैं एक डावीमें रतन वाका कछु विगया नाहीं, गुपत पुडत है है दूरि करि, कालै तौ व्यक्त है । तेसैं शरीरमैं छिप्या आतमा है, याका कछु न विगया है
गुपत है, कर्मरहित भये प्रगट है। गुपत प्रगट अवस्थाभेद है। दोन्यौं अवस्थामैं स्वरूप जैसैका तैसा है, ऐसा श्रद्धाभाव सुखका मूल है । जाकी दृष्टि पदार्थशुद्धिपरि
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ५२ ॥
नाहीं, कर्मदृष्टि अवलोकै, सुख कौन पावै? जैसी दृष्टि देखे, तैसौ फल होय । मयूरकौ मुकरंद पाषाण है तामैं सब मोर भास, पाषाणओर देखें मोर भासै, पदार्थओर देखे पदार्थही है, मोर नाही । तैसें परमैं पर भासै, निजओर देखे पर न भासै, निजी है । सुखकारी निजदृष्टि तजि दुःखरूप परदृष्टि न दीजै ॥
चिदानन्दराम ! आपको अमर करिकैं अवलोकौ । मरण तुममैं नही । जैसें कोई चक्ररत्न जिसके घरमैं चौदा रत्न नव निधि अर वह दरिद्री भया फिरै, ताकौं अपनें चक्रवर्तिपद अवलोकनमात्रतैं चक्रवर्ती आप होय, ऐसें स्वपदकौं परमेश्वर अवलोकै, तौ तब परमेश्वर है । देखो देखो भूल ! अवलोकनमात्रतैं परमेश्वर होय । ऐसी अवलोकना न करे, इंद्रियचोरनके वश भया अपने निधान मुसाय (लुटवाय ) दरिद्री भया, भवविपत्तिकों भरे है, भूलि न मेटे है । सो चित्तविकाररूप जीव होय, तब परकौ आपा मानै । ए भाव जीवका निज जातिस्वभाव नाहीं हैं । इन भावनतें जो
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॥ अनुभवप्रकाश || पान ५३ ॥
व्यापार सोही चेतना एक तूं जीव निज जातिस्वभाव जानु । यह चेतना है सो केवल जीव है, सो अनादि अनन्त एकरस है, तिसतैं चेतना साक्षात् आप जीव जानना, तिसतें शुद्धचेतनारूप जीव भये । इन रागादिभावविषैहू आपनमें जीव कर्मचेतनारूप होय प्रवर्ते है | चेतना जीवचेतना चेतनारूप आप तिष्ठै है । कर्मचेतना कर्मफलचेतनाविकार जीवचेतनका है । परि व्यापक चेतना है | चेतना जीवविना नाहीं है | चेतना शुद्धजीवका स्वरूप है । ताके जाने ज्ञाता जीवकै ऐसा भाव होय है ||
अब हम शुद्धचेतनारूप स्वरूप जान्या । ज्ञानदर्शन चारित्ररूप हम हैं, विका ररूप हम नांही, सिद्धसमान हैं, बन्ध मुक्ति आश्रव संवररूप हम नाहीं, हम अब जागे, हमारी नींद गई, हम अपने स्वरूपकों एक अनुभव हैं, अब हम संसार जुदे भये, स्वरूपगजपरि हम आरूढ भये, स्वरूपगृहविषै प्रवेश कीया, हम तमासगीर इन संसारपरिणामनके भये । हम अब आप अपने स्वरूपकों देखे जाने हैं । इतना विचार
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ५४ ॥ तो विकल्प है। ज्ञानका प्रत्यक्षरस वेदना भावनमैं सो अनुभव है । विचारप्रतीतिरूप है है साधक है, अनुभव भावसाध्य है। साधकसाध्यभेद जानै तौ वस्तुकी सिद्धि होय ।। हूँ सो कहिये हैं। १ . साध्यसाधक उदाहरण कहिये हैं । एकक्षेत्रावगाही पुद्गलकर्महीका सहजही है हैं उदय स्थितिको होय है, सो साधक अवस्था जाननी। तहां तवलग तिस हवनेका (?) है है स्थितिस्यौं चित्तविकार हवनेकी (?) प्रवर्तना पाईये है, सो साध्यभेद जानना ॥ मिथ्यात्व है
साधक, बहिरात्मा साध्य है। सम्यग्भाव साधक है, तहां वस्तुस्वभाव जातिसिद्ध है है होना साध्य है। जहां शुद्धोपयोगपरिणति होना साधक है, तहां परमात्मा साध्य है। है व्यवहाररत्नत्रय साधक है, तहां निश्चयरत्नत्रय साध्य है। सम्यग्दृष्टिकौं जहां विरति है है व्यवहारपरिणति हवना साधक है, तहां चारित्रशक्ति मुख्य हवना साध्य है । देव-है है शास्त्र-गुरु भक्ति विनय नमस्कारादि भाव जहां साधक है, तहां विषयकषायादि भाव- है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ५५॥
१ नसौं उदासीनता मनःपरिणतिकी स्थिरता साध्य है। जहां एक शुभोपयोग व्यवहा-है रपरिणति हवना साधक है, तहां परम्परामोक्ष साध्य है ॥ ३ जहां अन्तरात्मारूप जीवद्रव्य साधक है, तहां अभेद आपही जीवद्रव्य परमा-है है त्मारूप साध्य है। जहां ज्ञानादिगुण मोक्षमार्गरूपकरि साधक है, तहां अभेद है है आपही ज्ञानादिगुणका मोक्षरूप साध्य है। जहां जघन्य ज्ञानादिभाव साधक है, तहां है है अभेद आपही वेही ज्ञानादिगुणका उत्कृष्टभाव साध्य है | जहां ज्ञानादि स्तोक निश्च-है
यपरिणतिकरि साधक है, तहां अभेद आपही बहुत निश्चयपरिणतिरूप ज्ञानादि गुण हैं साध्य हैं । जहां सम्यक्त्वी जीव साधक है, तहां तिस जीवकै सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र साध्य हैं । जहां गुणमोक्ष साधक है, तहां द्रव्यमोक्ष साध्य है। जहां क्षपकश्रेणी चढना है साधक है, तहां तद्भवसाक्षान्मोक्ष साध्य है। जहां द्रव्यतें भावतें साक्षात् द्वैतव्यवहार । साधक है, तहां साक्षान्मोक्ष साध्य है। जहां भावितमनादिरीतिविलय (?) साधक है,
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॥ अनुभवप्रकाश || पान ५६ ॥
तहां साक्षात्परमात्मरूप केवल हवना साध्य है । जहां पौगलिककर्म खिरणा साधक है, तहां चिदिकारविलय हवना साध्य है |
जहां परमाणुमात्रपरिग्रहप्रपंच साधक है, तहां ममताभाव साध्य है । जहां मिथ्यादृष्टि हवना साधक है, तहां 'संसारभ्रमण साध्य है। जहां सम्यग्दृष्टि हवना साधक है, तहां मोक्षपद होना साध्य है । जहां काललन्धि साधक है, तहां द्रव्यकों तैसाही भाव हवना साध्य है । हम स्वभावसाधनकर अपने स्वरूपकों साध्य कीया है | यह साध्यसाधकभाव जानि सहजही साध्य सधै है || विशेष इनका कीजिये है । अहं नरः । अहं देवः । अहं नारकः । अहं तिर्यक् | ये शरीर मे रे; परमैं निजभाव परकौं आपा मानना, स्वरूपतैं बाहरि परपदार्थ मैं परिणाम तन्मय करना रागभावतें रंजकताकरि परके स्वरूपकों आप प्रतीतिकरि जानियै । ऐसा मिथ्यात्व दूजा भेद मिथ्यात्वका । ऐसें मिथ्यात्वक साधै है । सो कहिये हैं |
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ५७ ॥
अतत्त्वश्रद्धान मिथ्यादर्शन, अयथार्थज्ञान मिथ्याज्ञान, अयथार्थाचरण मिथ्या है है आचरण । क्षुधादि अठरा दोष संयुक्त देवकी भक्ति तारणबुद्धि” मिथ्यात्व होय । है हैं काहेत ? परानुभवी है, मिथ्यालीन है, तिनके सेये मिथ्यात्व होय । ऐसें दोषसहित है है गुरु ग्रन्थलीन विषयारूढ परबुद्धिधारककौं मानै मिथ्यात्व, मिथ्याशास्त्र मिथ्यामत मिथ्या-है है धर्म इनकौं मानि मिथ्यात्व सो मिथ्यात्व वहिरात्माका साधक है। अनादिका वहिरात्मा है इस मिथ्यासेवनः भया है । तातें बहिरात्मा साध्य है। दुजा सम्यग्भाव साधक है। सो वस्तुका जो. स्वभाव अनन्तगुण ताकी सिद्धि करे है । काहेरौं ? सव गुण यथाविधि स्वरूप सम्यक् अपने स्वरूपकों जब धरै, जब सम्यग्भावकों लीये होय, ज्ञानका निर्विकल्प जानपणा सब आवरणरहित केवलज्ञानरूप सम्यगवस्थारूप, सो सम्यग्ज्ञान । कहिये । यौंही आवरणरहित शुद्ध सम्यकप यथावत् निश्चयभावरूप निर्विकल्प सब है है गुण सम्यक् कहिये ॥
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ५८ ॥ द्रव्य अपने शुद्धत्व जैसा स्वरूप है , तैसैंकौं लीयै । पर्याय जैसा कबु परिणम-है है नरूप स्वभाव है, तैसैंकों लीयै। ऐसे द्रव्यगुणयर्यायका स्वभाव जाति सब सिद्ध हवना है है सम्यग्भाव है । तातें सम्यग्भाव साधक है । वस्तुस्वभाव जातिसिद्ध हवना साध्य है, है है शुद्धोपयोगपरिणति साधक है । परमात्मा साध्य है, सो कहूंत शुद्धोपयोगस्वभावसङ्गत है हे होय है। ज्ञानदर्शन तो साधक । तातें सब रूप शुद्धोपयोग, चारित्ररूप शुद्धोपयोग, है है सो ज्ञानदर्शन तो साधक, तातें सब शुद्ध नाहीं । केतेक शक्तिकरि शुद्ध है। चारित्रहैं गुण वास्मैके ठिकाने सव शुद्ध हैं । परि परम यथाख्यात तेरमैं चौदमैमैं नाव पावै है । है है तातें केतेक ज्ञानशक्ति शुद्ध भई । ता ज्ञानशक्तिकरि केवलज्ञानरूप गुप्त निजरूप ताकौं है है प्रतीति व्यक्ति करि, तव परिणतिनैं केवलज्ञान• प्रतीति रुचि श्रद्धाभावकरि निश्चय है १ कीया। गुप्तका व्यक्तश्रद्धानतें व्यक्त होय जाय है ॥ । एकदेशस्वरूपमें शुद्धत्व सर्वदेशकौं साधे है । शुद्धनिश्चयकरि शुद्धस्वरूप जान्या है
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. ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ५९॥ परिणतिमें शुद्धनिश्चय भया। तब वैसाही वेद्या । शुद्धका निश्चय शुद्धपरमात्माकौं कारण है है।तातें शुद्धोपयोग साधक, परमात्मा साध्य है। निश्चय साध्य है सो कैसें तत्त्वश्रद्धानमैं है हैं है। याका हेय श्रद्धान । निजतत्त्वका उपादेय श्रद्धान तत्त्वज्ञानमैं परतत्त्वका रूप हेय है जान्या, निजतत्त्व उपादेय जान्या । भवभोगादिविरति कार्यकारी जानी । सम्यक्त्वाहै चरणरीति उपादेय जानी। ऐसा व्यवहार तत्त्वसौं मिल्या विचार हेय उपादेयांका है सम्यग्भेदकौं लीये है। इस व्यवहारकै होतै निजसम्यक्स्वरूपकौं मन इन्द्रिय उपयोग है निरोधि शुद्ध अनुभवै । निजश्रद्धान सिद्धसमान स्वरूपका करै । तत्त्व सातका भेल नहीं। निजशुद्धतत्व अनुभवगोचर करै। निश्चयकरि श्रद्धानमैं आपकौं परमात्मा शुद्ध है । । है निश्चयकरि ज्ञान परमात्माका जानपणा केवलज्ञान जातितें जानै । स्तोक सम्यग्ज्ञानतें है सब सम्यग्ज्ञानकौं प्रतीतिमैं जानै । स्वसंवेदमैं जातिरूपकरि अपना स्वरूप केवलज्ञानमैं है ठीक जान्या। थोरे ज्ञानमैं बहुत ज्ञानकी प्रतीति आई। निश्चयकरि स्वरूप जान्या है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ६०॥
है सो निश्चयज्ञानपरिणतिकरि स्वरूप आचरना स्वरूपाचरण । परमात्माका श्रद्धानज्ञान है है निश्चयकरि केतेक ज्ञानादि शुद्धशक्तिकरि भया । तैसेंही आचरण भया ।
निश्चयनय परमात्मा है । परिणति वैसीही निश्चयरूप परिणई है। ये निश्च-है हैं यरत्नत्रय प्रथम व्यवहाररत्नत्रय भये होय हैं । तातै व्यवहाररत्नत्रय साधक, निश्चय- है है रत्नत्रय साध्य है। सम्यग्दृष्टिकै विरति व्यवहारपरिणति साधक है, तहां चारि-है है त्रशक्ति मुख्य साध्य है । सो कहिये हैं । विरति परिणति कहिये रति नांही । ताके हैं है भेद विषयनमैं रति नाही, कषायमै रति नाही, अशुभाचरणका त्याग, शुभाच-१ है रणमैंह रति नांही, कर्मकरतूति रति नांही । ज्यौं ज्यौँ पररातभाव तजै, सौं त्यौं स्वरू- है है पविर्षे थिरता विश्राम और आचरण होय, तहां चारित्र कहिये । परिणतिशुद्धता प्रगटै । है चारित्रशक्ति मुख्य साध्य है । देवशास्त्रगुरुभक्ति विनय नमस्कारादि भाव साधक है, है तहां विषयादि उदासीनतामैं परिणति स्थिरता साध्य है देवभक्ति परमात्मव्यक्त शुद्ध- है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ६१॥ चेतना प्रगट अनन्तयण प्रगट तिनकी पूजा सेवा मनसौं परिपूर्ण प्रीति बाह्य प्रभावना अन्तरङ्ग ध्यान गुणवर्णन अवज्ञा अभाव परमउत्साह मन वच काय धन सर्व भक्तिनिमित्त लगावै, अपने प्राणहूर्त वल्लभ प्राण दुःखमूल जानै, उनकौं अनन्तसुखकारण जानै, शुद्धस्वरूप जानि भक्ति करै, शुद्धस्वरूप अभिलाषी आप यातें उनकी भक्ति है रुचि श्रद्धा प्रतीतिते करै, शास्त्रकी भक्ति करै । काहेत ? अपनौ स्वरूप शास्त्र पावै । ई है । संसारदुःखहानि स्वरूपभावनाते होय , सो पावै । स्वपरविवेक ग्रन्थ प्रगटैं। मोक्ष- १ ई मार्ग मोक्षस्वरूप वाणीतै लहै । तातें शास्त्रभक्ति कही । गुरु मोक्षमार्ग उपदेशै, शान्त- है है मुद्रा धारी गुरु, मुद्रा विनावचन बोल्याही मोक्षमार्ग दिखावै । ऐसे श्रीगुरु सर्वदोपर-, है हित तिनकी भक्ति कही । इनकी भक्ति करै, मुक्तिके ये कारण जानि करै । तव भव- है १ भोगसौं उदास होय मन स्वरूपहीकी स्थिरता चाहै, तब साधै । तातें उनकी भक्ति है १ साधक है, मनकी स्थिरता साध्य है ।।।
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ६२॥ शुभोपयोगके तीन भेद हैं । क्रियारूप, भक्तिरूप, गुणगुणिभेदविचाररूप । सो है है सातिशयकौं लीये निरतिशयकौं लीये षड्भेद । ये जो सम्यक्त्वसहित सो सातिशय, १ सम्यक्त्वविना तीनौ निरतिशय । सम्यक्त्वसहितमैं तौ नियम है, परम्परा मोक्ष करैही है है करै । विनासम्यक्त्व शुभोपयोग संसारसुख दे, देवपद दे, राजपद दे। तहां देवगुरुशाहै स्त्रको निमित्त होय याकै लाभ होनो होय तौ होय, नांही तो न होय । कारजको है है कारणविना नियम है, ऐसी रीति जानियौं । याप्रकार शुभोपयोग साधक है, परम्परा-है । मोक्ष साध्य है॥
अन्तरात्मा भेदज्ञानकरि परसौं भिन्न निजरूप जान, सिद्धसमान प्रतीतिज्ञानहै गोचर करै, तब साधक है आपही आप, निश्चयनय अभेद परमात्मा साध्य है । जहां है 'ज्ञानादि मोक्षमार्ग कहिये एकदेश स्वसंवेदन शुद्धोपयोगरूप, तहां अभेदज्ञानमूर्ति । आत्मा मोक्षस्वरूपकौं साथै, तातें अभेदज्ञान मोक्षरूप साध्य है । जघन्यज्ञानतें उत्कृष्ट है
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॥ अनुभवप्रकाश || पान ६३ ॥
ज्ञान पाईये, तातैं जघन्यज्ञान साधक उत्कृष्टज्ञान साध्य है । जहां ज्ञान स्तोकादि निश्रय करै, तहां वह निश्चय बढै । जैसैं स्तोक अमल है चाहि लीन अमल बहुत वढै, बहुत निश्चय परिणतिरूप ज्ञानादि गुण बढे, सो साध्य है । सम्यक्त्वी जीव दर्शनज्ञानचारित्रकौं साधै, तातैं सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन चारित्र साध्य हैं । सम्यक्त्व साधक है । सम्यक्त्वज्ञानादि भाव शुद्ध होय जब द्रव्यकर्म मिटै, तब द्रव्यमोक्ष होय, तातैं गुणमोक्ष साधक, द्रव्यमोक्ष साध्य है । क्षपकश्रेणी चढै जब तद्भवमोक्ष होय, तातैं क्षपकश्रेणी चढना साधक है, तद्भवमोक्ष साध्य है । दरवितलिंग होय, भावित स्वरूपभाव भाव होय, तब साक्षात् मोक्ष सधै, तातैं दरवित भावित यति व्यवहार साधक है, तहां साक्षान्मोक्ष साध्य है । भावितमनके विकार विलय भये साक्षान्मोक्ष होय ता भावित मनादिरीति विलय साधक है, साक्षान्मोक्षरूप साध्य है |
जहां पौगलिक कर्म खिरणा साधक है, काहेतैं ? पुद्गलकर्म विपाक आये मनो
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ६४॥ है विकार उपजे है, ता” पुद्गलही सिरि जाय, तव मनोविकार कहांतें रहै ? तातै मनोई विकारविलय हवना साध्य है, कर्म खिरणा साधक है। परमाणुमात्रभी परिग्रह होय है है तौ ममताभाव होयही होय, तातें परमाणुमात्र परिग्रह साधक है, ममताभाव साध्य है। १ मिथ्यात्वते संसार भ्रमै , मिथ्यात्व साधक, संसारभ्रमण साध्य है। सम्यक्त्व भये मोक्ष है है होय, तातें सम्यक्त्व साधक है, मोक्ष होना साध्य हैं। जैसी काललब्धि आवै, तैसीही है १ स्वभावसिद्धि होय, तात काललब्धि साधक है, तैसाही स्वभाव हवना साध्य है। है १ साधकसाध्यभेद अनेक हैं, सो जाननै ।।
शब साधक है, अर्थ साध्य है । अर्थ साधक है, ज्ञानरस साध्य है। स्थिरता है साधक है, ध्यान साध्य है। ध्यान साधक है, कर्म क्षरणा साध्य है। कर्म क्षरणा, हैं साधक है, द्रव्यमोक्ष साध्य है । राग-द्वेष-मोह अभाव साधक है, संसाराभाव साध्य । है है । धर्म साधक है, परमपद साध्य है । स्वविचारप्रतीतिरूप साधक है, अनाकुलभाव है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ६५॥ साध्य है। समाधि साधक है, निजशुद्धस्वरूप साध्य है । स्याद्वाद साधक है, है यथार्थ पदार्थकी साधना साध्य है । भली भावना साधक है, विशुद्धज्ञानकला
साध्य है। विशुद्धज्ञानकला साधक है, निजपरमात्मा साध्य है । विवेक साधक है, कार्य साध्य है। धर्मध्यान साधक है, शुक्लध्यान साध्य है । शुक्लध्यान हैं साधक है, मोक्ष साक्षात् साध्य है। वीतरागभाव साधक है, कर्मअबंध साध्य है है है। संवर साधक है, निर्जरा साध्य है। निर्जरा साधक है, मोक्ष साध्य है। है चिदिकारभाव साधक है, शुद्धोपयोग साध्य है। द्रव्यश्रुत सम्यगवगाहन साधक है, है है भावश्रुत साध्य है। भावश्रुत साधक है, केवलज्ञान साध्य है। चेतनमै चित्त लीन हैं
करना साधक है, अनुभव साध्य है । अनुभव साधक है, मोक्ष साध्य है। नयभङ्गी, हैं साधक है, प्रमाणभङ्गी साध्य है । प्रमाणभङ्गी साधक है, वस्तुसिद्धि करना साध्य है। है हैं शास्त्र सम्यक् अवगाहन साधक है, श्रद्धागुणज्ञता साध्य है। श्रद्धागुण साधक है, है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ६६ ॥
परमार्थ पावना साध्य है । यतिजनसेवा साधक है, आत्महित साध्य है । विनय साधक है, विद्यालाभ साध्य है । तत्त्वश्रद्धान साधक है, निश्वयसम्यक्त्व साध्य है । देवशास्त्रगुरुकी प्रतीति साधक है, तत्त्व पावना साध्य है । तत्त्वामृत पीवना साधक है, संसारवेद मेटना साध्य है । मोक्षमार्ग साधक है, संसारखेद मेटना साध्य है ।
मोक्षमार्ग साधक है, मोक्ष साध्य है। ध्यान साधक है, मनोविकारविलय साध्य है । ध्यानाभ्यास साधक है, ध्यान सिद्धि साध्य है । सूलतात्पर्य साधक है, शास्त्रतात्पर्य साध्य है । नियम साधक है, निश्चयपद पावना साध्य है । नयप्रमाणनिक्षेप साधक है, न्यायस्थापना साध्य है । सम्यक्प्रकार हेय उपादेय जानना साधक है, निर्विकल्प निजरस पीवना साध्य है | परवस्तुविरक्तता साधक है, निजवस्तुप्राप्ति साध्य है । परदया साधक है, व्यवहारधर्म साध्य है । स्वदया साधक है, निजधर्म साध्य है । संवेगादि आठ गुण साधक हैं, सम्यक्त्व साध्य है | चेतनभावना साधक है, सहजसुख साध्य है ।
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ गन ६७ ॥ प्राणायाम साधक है, मनोवशीकरण साध्य है । धारणा साधक है, ध्यान साध्य है । ध्यान साधक है, समाधि साध्य है । आत्मरुचि साधक है, अखण्डसुख साध्य है। है है नय साधक है, अनेकान्त साध्य है। प्रमाण साधक है, वस्तु प्रसिद्ध करना साध्य है। है है वस्तुग्रहण साधक है, सकलकार्यसामर्थ्य साध्य है। परपरिणति साधक है, भवदुःख है है साध्य है। निजपरिणति साधक है, स्वरूपानन्द साध्य है। ऐसे साधकसाध्य हैं। है है अनेक भेद जानि निज अनुभव करिये । ये सब स्वरूप आनन्द पायवेको वताये हैं। है है कर्मकल्पना कल्पित है। आत्मा सहज अनादिसिद्ध है। अनन्तसुखरूप है । अनन्त
गुणमहिमाकौं धरै है। वीतरागभावना भावनतें शुद्ध उपयोग धारि स्वरूपसमाधिमें है लीन होय स्वसंवेदन ज्ञान परिणतिकरि परमात्मा प्रगट कीजै ॥
कोई जानैगा, आजिके समयमैं स्वरूप कठिन है, तिसर्ने स्वरूप चाहि मेटि है है बहिरात्मा है, आजिसौं अधिक परिग्रह चतुर्थकाल पुण्यवंत नर चक्रवर्ती आदिक है
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. . ॥ अनुभवप्रकाश । पान ६८ ॥ । तिनकै था, सो इसकै तौ थोरा है, सो परिग्रह जोरावरी इसके परिणामनमें न आवे है है है । यौंही दौरि दौरि परिग्रहमैं धुकै है । जब ठालौ होय, तब विकथा करै । तब स्वरू-है है पके परिणाम करै, तौ कौन रोकै? परपरिणाम सुगम , निजपरिणाम विषम वतावे है। है
देखौ अचिरजकी बात, देखे है जानै है देख्यौ न जाय जान्यौ न जाय । ऐसें कहत है ( लाजहू न आवै । संसारचातुरीको चतुर आप जानिवेकौ शठ ऐसौ हठ धिठौहीसौं
पकरि पकरि पररत विसनकौं गाढौ भयौ । स्वभावशुद्धि विषारी भारी भव बांधि अंध है १ धंध धायौ न लखायौ । आप अब श्रीगुरुप्रतापते संतसंग मिलाप, जातै मिटै भवताप, है है आप आपहीमें पावै, ज्ञान लक्षण लखावै, आप चिंतन धरावै, निजपरिणति बढावै, है है निजमांहि लवलावै, सहजस्वरसकौं पावै, कर्मवन्धन मिटावै, भाव आपमैं लगावै,
वर चिद्गुणपर्यायकौं ध्यावे, तव हर्ष उपावै, मन विश्राम आवै, रसास्वादकौं जु पावै, ह १ निज अनुभव कहावै, ताकौं दूरिको वतावै, भवभावरी घटावै, आप अलख लखावै, है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ६९॥, हैं चिदानन्द दरसावै, अविनाशी रस पावै, जाको जस भव्य गावै, जाकी महिमा अपार है है जानैं मिटै भवभार महा, ऐसौ समयसार अविकार जानि लीजिये ।। है जीजिये सदैव कीजिये, सोही वोही द्रोही न होय, आप अवलोय, शुद्ध उपहै योग थाय, परको वियोग भाय , सहज लखाय, जिन आगममें कही वात, तिहु लोकई नाथ व्है, विख्यात निजअनुराग सेती धरि, वीतरागभाव यह दाव पायो, फिरि मिलै है है न उपाय , ऐसो भाव धरि, जातें मिटै भवफंद, तातें मानथंभ मेटि मायाजलकौं है ई जलाई । क्रोध अनि बुझाइ, लोभलहरि मिटाइ, विषयभावना न भाइ, चिदानन्दरायपद है । देखो देखो। निज आपको गवेषौ, परवेदनाकी उच्छेदना करि सहजभाव धरि अंत-है है वेदी होय, आनन्दधाराकौं देखि, परमात्मनिश्चयरूप देखि, इस परपरिणतिनारीसौं हैं ललचाये॥
कुमतिसखी संगि गतिमैं डालै, निजपरिणति राणीके वियोगतें बहुदुःखी भये ।
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७० ॥
अब निजपरिणतियासौं अतीन्द्रिय भोग भोगवो, जहां सहज अविनाशीरस वर्षे है । अरूपीक मैं पद्मराग मणि कल्पि आनन्द झूठेही मानौ हौं । ऐसें परमैं निजभाव कल्पा सो झूठेही हौस पूरी करो, सो न होय । आकाशमें देव एक, ताके करमें चिंतामणि, ताको प्रतिविम्व अपने वासन के जलमें देख्यौ, मनमें विचारि मेरै चिन्तामणि है, ताके भरोसौ विराने लाखौ देने कीये तौ कहा सिद्धि है ? झूठ कल्पना तुमहीकौ दुखदाई है । साचौ चिन्तामणि घरमैं ताकौ न देखौ ! अरु प्रतिविम्वमैं हाथि न परै । वहुत खेद करो, सो कहा बढाई ? अब अपनो साचो अखंड पद देखो । ब्रह्मसरोवर आनन्दसुधारसकरि पूर्ण, जाको सुधारस पीवत अमर होय, सो रस पीवनो ॥
॥ अथ अनुभववर्णनम् ॥
पौगलिक कर्म ही कर पांच इंद्रिय छठे मनरूप वन्या सञ्ज्ञी देह, तिस देहविषै तिसप्रमाण तिष्ठया जु है जीवद्रव्यभी इंद्रिय मन सञ्ज्ञा नाम पावै । भावइन्द्रिय भावमन
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अनुभवप्रकाश ॥ पान ७१ ॥ है छह प्रकार उपयोगपरिणामभी भेद पड्या है। एकएक उपयोगपरिणाम एककौं देखें है जानै । मन उपयोग परिणाम चिन्ता विकल्प देखै जानै । परिणाम विचार विकल्प है है चिंतारूप मानना होय । तिस होनैं सो तिस परिणामभेदकों मन नाम कह्या देखि है
संत अवर अब इनहकों एक ज्ञानका नाम लेइ कथन करूं हौं । तिस ज्ञानकथनेकरि है दरसनादि सब गुण आगया । इन मन इंद्रियभेदहके ज्ञानकी पर्यायका नाम मतिसञ्ज्ञा है है कहिये । मिश्र भेदज्ञानकरि अर्थस्यौं अर्थान्तरविशेष जानै, इस जाननेकौ श्रुतसज्ञा हैं कहिये। दोन्यों ज्ञानपर्याय कुरूप सम्यग्रूप कहिये । मिथ्यातीकौं जाननमैं कुरूपता है पौद्गलिक कर्मकरि पांचइन्द्रिय छठे मनरूप बन्या संज्ञी देह । तिस देहवि तिसप्रमाण ईतिष्ठया जु है जीवद्रव्यभी इन्द्रिय मन संज्ञा नाम पावै । भावइन्द्री भावमन छहप्रकार १ उपयोगपरिणामभी भेद पड्या है, एकएक उपयोग परिणाम एकएककौं देखै जाने मन-है है उपयोग परिणाम चिन्ताविकल्प देखे जानें परिणामविचार विकल्पचिंतारूप मानना है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ७२॥ है होय, तिस होनेसों तिस परिणामभेदकौं मन नाम कह्या । देखि संत (?) अवरु इनहै हिकौं एकज्ञानका नाम लेइ कथन करूं हौं, तिस ज्ञानकथनैंकरि दर्शनादि सवगुण है है आय गए । इन मनइन्द्रीभेदके ज्ञानकी पर्यायका नाम मतिसंज्ञा कहिये मिश्रभेदज्ञानहै करि अर्थस्यौं अर्थान्तर विशेप जानै तिस जाननैंकौं श्रुतसंज्ञा कहिये। दोन्यों ज्ञान- है
पर्याय कुरूप सम्यग्रूप कहिये मिथ्याती मतिश्रुतरूप जानना है, तिस जाननै विर्षे है । स्व-परव्यापक अव्यापककी जाति नाहीं । तिस ज्ञेयकों आप लखै अथवा लखताही है हैं नाहीं । मिथ्यातीक जाननमैं कुरूपता है । सम्यग्दृष्टि परका जाने हैं। स्वकौं स्व जाने । है है । चारित्रमै परकौं निजरूप अवलंबै है मिथ्याती। सम्यग्दृष्टि निजकौं निज अव-है
लंबै है । सम्यक्ता सविकल्प निर्विकल्परूपसौं दोय प्रकार है । जघन्यज्ञानीकें जब तिस है है परशेयकौं अव्यापकपररूपत्व जानि आपकौं जाननरूप व्यापक जानै सो तो सविकल्प-है है सम्यक्ता । अवरु जु आप जाननरूप आपकौंही व्याप्यव्यापक जान्या करै सो निर्वि
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७३ ॥ १ कल्परूप सम्यक्ता । अवरु जो एकबेर एकसमय विर्षे स्वकौं सर्व स्वकरि लखै, सर्व-है है परकों परकरि लखै तहां चारित्र परमशुद्ध है ।।
तिस सम्यक्तताकौं परम सर्वथा सम्यकात्म कहिये केवल दर्शनज्ञानपर्यायविर्षे है पाइये । अवरु जिस ज्ञेयप्रति प्रयुंजै तिसहीकौं जाने औरको न जानैं । मिथ्यातीक है वा सम्यक्हृष्टिक ज्ञेयप्रयोजना ज्ञान तो एकसा है, परंतु भेद इतना ही, मिथ्याती है जेता जानै तेता अयथार्थरूप साधै । सम्यग्दृष्टि तिसही भावकौं जानें तितनँही यथार्थरूप साधै। तातें तिस सम्यग्दृष्टिक चारित्र अशुद्ध परिणामनसौं बंध होय सकता नाहीं । तिन उपयोग परणामौ. बंध आस्रव तिन अशुद्ध परिणामनकी शक्ति कीलि है राखी है । तातै निरासव निबंध है । अरु सब एक आपहीकौं आप चित्तवस्तु व्यापक ई व्याप्यताकरि प्रत्यक्ष आपही देखन लग जानन लगें, अरु ते चारित्रपरिणाम निज है उपयोगमय चित्तवस्तुविर्षे थिरीभूत शुद्ध वीतराग ममरूप प्रवते । तिनही चारित्र परि- १
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७४ ॥ णामजन्य निजारथ होय है। यौंकरि सम्यग्दृष्टिक ज्ञानदर्शनचारित्रसहित परिणाम है निजचित्तवस्तुहीकौं व्याप्यव्यापकरूप देखतें जानते आचरतें निजास्वाद लेय निजस्वाददशाका नाम स्वानुभव कहिये ।
स्वानुभव होतें निर्विकल्प सम्यक्ता उपजै। स्वानुभवकों कहौ वा कोई निर्विकल्पदशा कहौ, वा आत्मसन्मुख उपयोग कहौ, वा भावमति भावभुत कहौ, वा है स्वसंवेदनभाववस्तुमगन भाव वा स्वआचरण कहाँ, थिरता कहौ, विश्राम कहो, है स्वसुख कहौ, इन्द्रीमनातीत भाव , शुद्धोपयोगस्वरूप मम वा निश्चयभाव, स्वरससाम्य- है है भाव, समाधिभाव, वीतरागभाव, अद्वैतावलंबीभाव, चित्तनिरोधभाव, निजधर्म-है भाव, यथास्वादरूप यौकरि स्वानुभवके बहुत नाम हैं। तथापि एक स्वस्वादरूप अनु- है भवदशा मुख्यनाम जानना। जो सम्यग्दृष्टि चउथेका है। तिसकें तो स्वानुभवका है है काल लघु अंतर्मुहूर्तताई रहै है । वह काल पीछे होइ है । तिसते देशवतीका स्वानुभव है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ७५ ॥ ६ रहनेका काल बड़ा है । अरु थोरे ही काल पीछे होइ है। सर्वविरतिकै स्वानुभव दीर्घ है । अन्तर्मुहूर्तताई होइ है । ध्यानस्यौं भी होइ है । अति थोरे थोरे कालपीछे स्वानुभव है हुवा ही करे, वारंवार अवरु सातमैं । तेई परिणाम पूर्वस्वानुभवरूप भए थे तेतौ स्वानु-है है भवरूप रहै, पै तहांसौं मुख्यरूप कर्मधारासौं विकसि निकसि स्वरसस्वाद अनुभवरूप है है होते हैं ते चले । ज्यों ज्यौं आगूंका (पहिलेका) काल आवै है सौ सौं अवर अवरु । है परिणाम स्वस्वादरस अनुभवरूप होई करि बढते चलें हैं। यौंकरि तहांसौं अनुभवहैं दशाकी परिणाम बढनि करि पलटनि होइ है । क्षीणमोह अन्तलगु जाननी ॥
भो भव्य! तू एक बात सुनि-हम एक अवरु कहें हैं। यह स्वानुभवदशा स्वसहै मयरूप सुख है, शान्ति विश्राम है, स्थिररूप है, निजकल्याण है, चैन है, तृप्तिरूप है है है, समभाव है, मुख्य मोक्षराह है, ऐसा है। अरु यहु सम्यक् सविकल्पदशा यद्यपि है हैं उपयोग निरमल है तथापि यहां चारित्र परिणाम परालंब अशुद्ध चंचल होते संतै सवि-है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७६ ॥
कल्पदशा दुःख है । तृष्णातप्तकरि चंचल है । पुण्यपापरूप कलाय है । उद्वेगता है । असंतोषरूप है । ऐसें ऐसें विलापरूप है | चारित्र परिणाम दोन्यौतै अवस्था आपविषै देखी है । तिसतें भला यह जुं तू स्वानुभवरूप रहनेका उद्यम राख्या करु | यह हमारा वचन व्यवहारकरि उपदेशकथन है । जेती जेती विशुद्धता थिरता गुणस्थान माफिक बढी तेता तेता सुख बढ्या | बारमैंलगु कषाय घटनेत थिरता बढी । मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमतें स्वसंवेदन रस बढ्यौ । स्वसंवेदन थिरता करि उपज्यो रसास्वाद स्वानुभव सो अनन्तसुख मूल है ||
सो अनुभव धाराधरजगै दुःख दावानल रंच न रहतु है । स्वानुभव भववासघटा भानवेक परम प्रचण्ड पवन मुनिजन कहतु है । अनुभव सुधापानकरि भव्य अमर अनेक भए । परमपूज्यपदकौं अनुभवही करे है । सब वेदपुराण याविनु निरर्थक है । स्मृति विस्मृति है । शास्त्रार्थ व्यर्थ है । पूजा मोहभजन है । अनुभवविना निर्वि
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७७ ॥
मैं
कार्य विन है । परमेश्वरकथा सोभी झूठी है । तपभी झूठ है | तीर्थसेवन झूठ है ॥ तर्क पुराण व्याकरण खेद है । अनुभवविना ग्रामविषै गाय श्वान, हिरणादिज्यौं अज्ञानतपसी । अनुभवप्रसादतें नर कहूं रहौ सदा पूज्य है । अनुभव आनंद, अनुभव धर्म, अनुभव परमपद, अनुभव अनन्तगुणरससागर, अनुभव सिद्ध है अनुपज्योति अमिततेज अखण्ड अचल अमल अतुल अबाधित अरूप अजर अमर अविनाशी अलख अछेद अभेद अक्रिय अमूर्तिक अकर्तृत्व अभोक्तृत्व अविगत आनंदमय चिदानंद इत्यादि अनंत परमेश्वरका विशेषण सर्व अनुभवसिद्धि करतु है । ता अनुभव सार है । मोक्षको निदान सब विधानको शिरोमणि, सुखको निधान अमलान अनुभव है । अनुभवी जीव मुनिजनके चरणारविंद इन्द्रादि सेवें हैं । तातें अनुभवकर ये ग्रन्थ ग्रन्थन मैं अनुभवकी प्रशंसा कही है। अनुभवविना साध्यसिद्धि कहूं नाहीं । अनन्तचेतनाचिन्हरूप अनंतगुणमंडित, अनंतशक्तिधारक, आतम
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पदको रसास्वाद अनुभव कहिये ।
वारंवार सर्व ग्रन्थको सार अविकार अनुभव है । अनुभव शासतौ चिन्तामणि है | अनुभव अविनाशी रसकूप है । मोक्षरूप अनुभव है । तत्त्वार्थसार अनुभव है । जगत उधारण अनुभव है । अनुभवतें आन कोई उच्चपद नाहीं । तातैं अनुभव सदा स्वरूपकौ करिये । अनुभवकी महिमा अनंत है कहांलौ वताइये । आठकर्मप्रदेश परि आपणी थितिकर बैठे सर्व पुद्गलका ठार है । तिनके विपाकके उदयकरि चिदविकार भया सो विकार जीवका है । वर्गणा नोकर्म द्रव्यकर्मरूप सव पुद्गल हैं । भावजीवके हैं। एकसो अठतालीस प्रकृति वर्गणा जड वणी है । उनके विपाक उदय व्यक्तता निमित्त पाय चिदविकारभया, सो विकारका स्वांग जीवन धन्य है । इस ज्ञेय रंजक अशुद्धता भाव उस शुद्धभावकी शक्ति अशुद्ध भई तब भया है । अशुद्धपरनिमित्ततें उफदू ? मैल है । पर इसनें कीया तातें इसका है । इसका मूलभाव नाहीं, काहेतैं बादरकी
॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७८ ॥
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७९ ॥ १ घढा लाल श्याम पीत हरितरूप भये आकाश वैसा न भया। जैसैं रतनपरि मांटी है है बहुत लपटी परि रतनका प्रकाश मांटीके लपटें न गया। अंतरशक्ति ज्योंकी त्यों है है है । त्यौं आतमाके अशुद्धभाव भयें आतमाका दरसन ज्ञानकी अंतर ज्यौंकी सौं है है है। पर पुद्गलका नाट वहुत बन्या है। सो पुद्गलका खेल जानु, तेरा आतमा है
खेल मति जानै ॥ है कहिये हैं दशधा परिग्रह क्षेत्र, वाग, नगर, कूप, वापी, तडाग, नदी आदि जेतेक है हैं पुद्गल माता पिता कलत्र पुत्र पुती वधू वंधू स्वजनादि जावंत सर्प सिंह व्याघ्र गज है ई महिषादि जावंत दुष्ट अक्षर शब्द अनक्षर शहादि वाग गव्यग स्नान भोग संजोग
वियोग क्रिया जावंत परिग्रह मिलाप सो वडा परिग्रह नाश सो दलिद्रादि क्रिया है है जावंत चलना बैठना हलना बोलना कांपनादि क्रिया जावंत लडना भिडना चढना है उतरना वाचना खेलना गावना बजावना आदि जावंत क्रिया सर्व पुद्गलका खेल जानु।।
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ८० ॥ नर नारक तिर्यञ्च देव इनके विभव भोगकरण विषयरूप इन्द्रियनिकी क्रियादि सब पुद्गल नाट है । द्रव्यकर्म नोकर्मादि सब पुद्गल अखारा है। तामैं तूं चिदानंद रंजन है है होय है। अपनी जान है। अपने दर्शनज्ञानचारित्रादि अनंत अखारा गुणका परि-है। है णति पातरा नाचे स्वरूपरस उपजा जेते गुणकौं वेर्दै द्रव्य वे सब भाव भये सत्ता है
मृदंग प्रमेय ताल इत्यादि सब निज अखारा है। ऐसे अपने निज अखारेमैं रांज, परके अखारेमैं” ममत्व कीया जिसका जन्मादि दुःखफल अपनां माया अपनें सहजाहै स्वादी होय परप्रेम मिटाय अचेतना प्रकाशका विलासरूप अतीन्द्रियभोग भोगि कहा है है झुठे ही सुनें जडमैं आपा मान है । अर परकौं कहै- हमकौं दुःख यह दे है । यामैं है
शक्ति दुःख देनेकी नाहीं। विरानै सिर झूठा उलाहना दे है अपनी हरामजादगीकौं है न देखे है । अचेतनकौं नचावत फिरत है, सो लाशहु न आवत है । मडेसौं सगाई है १ करि अब हम इससौं ब्याह करि संबंध करेंगे सो ऐसी वात लोकमैंहूं निंद्य है। तुम तो है
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|| अनुभवप्रकाश ॥ पान ८१॥
अनंतज्ञानके धारी चिदानंद है । अनादि झूठी विडंबना जडसौं आपा माननैंकी मेटौं। है तुम एक परमानि छोडौ । पराचरणहीत तुमारा दर्शन ज्ञानमैं लाभ भया है। देखनें । जाननेतें जो बंध, तातो सिद्ध लोकालोककौं देखत है, जानते हैं तेहू बंधते तिसते परिणाम तादाम्य नाहीं । तातै सिद्धभगवान न बंधै हैं। परिणामही, संसार परिणाम है ही मोक्ष मानि परिणामकै है रागद्वेष मोह परिणाम करै । इनका जतनहूं परणाम करै ।
ज्ञानदर्शनमैं रागदोष नहीं, वै देखवे जानवे मात्र है। इसकी विकारतातै वैदू विकारी है है कहावे । देखना जानना राग द्वेष मोह करि होय तो बंधे, राग द्वेष मोह न होय है
तो न बंधै । इस परिणाम शुद्धता अभव्यक न होय तातै ज्ञानदर्शन शुद्ध न होय । है भव्यकै परिणाम स्वरूपाचरणके होय तातें ज्ञानदर्श शुद्ध होय । उक्तं च पद्मनन्दि-है पचीसीमध्ये,--
“स्वानुष्ठानविशुद्धे दृग्वोधे जायते कुतो जन्म ॥
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ८२॥ उदिते गभस्तिमालिनि किं न विनश्यति तमो नैश्यम् ॥ १॥ कोई प्रश्न करै--वस्तु देखिये नाही जानिये नाही परिणाम वामैं कैसे दीजिये? है है ताको समाधान-- पर दीखता है जानिये है सो परका देखनेवाला उपयोग है तो है १ देखै है, ज्ञान है तो जान है । उपयोग तौ ठावा (?) भया नास्तिरूप हुवा, जो । है यह उपयोगे गहखां तिसहीमैं परिणाम धरि थिरता धरि आचरण करि विश्राम गहूं। है है येताही परिणाम शुद्ध करनेका काम है। उक्तं च- “उववोगमई जीवो” इतिवचनात् है है जातें परिणाम वस्तु वेद्यस्वरूपलाभ ले, वस्तुमैं लीन होय है । स्वरूपनिवास परिणाम है है ही करै हैं । उत्पाद व्यय ध्रुव परिणाममें आया, उत्पादव्ययध्रुवमैं सत् भया । सत् है है तामें स्वरूप सब आया, तातें परिणामशुद्धतामैं सव शुद्धता आई ॥ उक्तं च
जीवो परिणामयदा सुहेण असुहेण चासुहो असुहो। सुद्धेण तदा सुद्धो परिणामो होदि सब्भावो ॥
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ८३॥
परिणाम सर्व वस्वरूपका है । पराचरण दोय भेद है-द्रव्यपराचरण-भावपराचरण, है नोकर्म उपचार पराचरण है, परंपराकरि अनादि उपचार है ॥ वा देहका धारण सादि । है उपचार है। द्रव्यकर्मजोग अनादि उपचार है। भावकर्म अशुद्धनिश्चयनयकरि है। द्रव्यहै कर्मनोकर्मका द्रव्यपराचरण उपचार” है। भावपराचरण रागद्वेषमोह है तिसका आचरण है है है। कोई प्रश्न करै- जु रागादि जीवके भाव हैं परभाव सपरसादि हैं। रागादिककों परभाव क्यों कहे ? ताका समाधान- शुद्धनिश्चयनय रागादि जीवके नहीं, येभी पर हैं, काहेरौं भावकर्म ये हैं इनके नाश” मुक्ति है। पर हैं तो छुटै हैं । ताः परही कहिये ।। जब यह रागादिको अपने न मानेगा भवबंधपद्धति मिटैगी। तिसतै पररागादि तजि
शुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्र हैं। आप जानि ग्रहै यह मुक्तीका मूल है। परिणाम जीधै है कौंधुकै जैसा हैं । तातें परवोर छोडि स्वरूपमैं लगाय निज परिणाम हैं। उत्पादव्यय- है १ ध्रुव षद्गुणी वृद्धि हानि अर्थक्रियाकारक परिणामः सधै हैं ।
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॥ अनुभवप्रकाश || पान ८४ ॥
॥ आगे देवाधिकार लिखिये हैं ॥
का देवतें परममंगलरूप निजानुभव पाईये हैं । तातैं देव उपकारी हैं । देव परमात्मा है । अरहंत परमात्मा साकार है | शरीरयुक्त हैं । तातैं सिद्ध निराकार हैं। किंचून चरमशरीरतें आकार तातें साकार भी कहिये हैं । अरहंत कै अघातिकर्म रहे तातैं बाह्य विवक्षा मैं च्यारि गुण व्यक्त न भये । ज्ञानमें सब व्यक्त भये । सो कहिये हैं । नामकर्म मनुष्य गतिरूप है । तातैं सूक्ष्म बाह्य नहीं । केवलज्ञान मैं व्यक्त है । वेदनी है तातें बाह्य अबाधित नहीं । अंतरमैं ज्ञानमें व्यक्त है । अवगाह बाह्य नहीं । आपतें ज्ञानमें व्यक्त है । अगुरुलघुगोत्रतैं बाह्य व्यक्त नहीं, ज्ञानमैं है । यह अघातिहू व्यक्त नाव न पाया। नामस्थापनाद्रव्यभाव पूज्य हैं अरहंत के नाम लेतही परमपदकी प्राप्ति होई ॥ उक्तं च
जिन सुमरो जिन चिंतवो जिन ध्यावो सुमनेन ॥
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ८५ ॥
जिन ध्यायंतहि परमपय लहै इक क्षणेन ॥ १ ॥
जिनथापनात सालंवध्यानकार निरालंबपद पावै है । कैसी है थापना ॥ उक्तं च किं कमी किमुत्सवमयी श्रेयोमयी किं किमु । ज्ञानानन्दमयी किमुन्नतमयी किं सर्वशोभामयी || इत्थं किं किमिति प्रकल्पन परैस्त्वन्मूर्तिरुदीक्ष्यता । किं सर्वातिगमेव दर्शयति स ध्यानप्रसादान्महः ॥ १ ॥ मोहोद्दामदवानलप्रशमने पाथोदवृष्टिसमः । स्रोतोनिर्झरणीसमीहतविधौ कल्पेन्द्रवल्ली सताम् ॥ संसारप्रबलान्धकारमथने मार्तण्डचण्डद्युति । जैन मूर्तिरुपास्यतां शिवसुखे भव्यः पिपासास्ति चेत् ॥ स्वसंवेदनरूप वीतरागमुद्रा देखि स्वसंवेदभावरूप अपना स्वरूप विचारै - पूर्व
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ८६ ॥ है ये सराग थे, राग मेटि वीतराग भये। अव मैं सराग हौं। इनकीज्यौं राग मेटौं तौ वीतराग है मेरा पद मैं पावौं । निश्चयमैं हूं वीतराग हौं । उक्तं च--- है "पिच्छहु अरहो देवो पच्छरघडियो हु दरसय मग्गं" इतिवचनात् ।। इस स्थाप-३ है नाके निमित्त तिहुंकाल तिहुंलोकमैं भव्यजीव धरम साधै हैं । तातें स्थापना परम । है पूज्य है। द्रव्यजिन द्रव्यजीव सोहू भाव पूज्य हैं। तातें पूज्य भावि नय । अथवा है तीन कल्याण तक द्रव्याजिन हैं। सो पूज्य हैं । भावजिन समवसरणमण्डित अनंत है १ चतुष्टय युक्त भव्यनकौं सारै। दिव्यध्वनि उपदेश देयकरि साक्षात मोक्षमार्ग वर्षा करै है है परमातमा भावजिन कहिये ॥ आरौं सिद्धदेवका वर्णन कीजिये हैं ॥ सिद्ध निराकार है है परमातमा है । अनंतगुणरूप भये अपने अनंतसुखकौं गुणनिकरि पर्यायतें वेदि, द्रव्यहै गुणकौं अरु भोगवै हैं । लोकशिखर परि तिष्ठै हैं । षड्गुणी वृद्धि हानि अर्थ पर्याय है किंचून चरमदेहतै प्रदेशनिकी आकृति आकार व्यंजनपर्याय ।। उक्तं च---
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ८७ ॥
मय नग योग लि मूसिमैं जार स अंबर होय । पुरुषाकार ज्ञानमय वस्तु प्रमानौं सोय ॥ देवकों जानै तब स्वरूप अनुभव होय है। इति देवाधिकार ।
. ॥ अथ ज्ञानाधिकारः ॥ ज्ञान लोकालोक सकलज्ञेयकौं जानें निश्चय जाननरूप स्वरूप है ऐसी है है ज्ञानकी शक्ति है । संसार अवस्थामैं अज्ञानरूप भई है। तौऊ निश्चय निज शक्ति है न जाय है । बादरघटाके आवरण” सूर्यतेज न जाय, सौ ज्ञानावरण” ज्ञान न जाय
आवस्या जाय नाश न होय । ज्ञान सव गुणमैं वडा गुण है। इसमें अनंतगुण व्यक्त जानें ॥ ज्ञानविना ज्ञेय न जान्या पस्या । ज्ञेयविना जानवा योग्य कछु भी न होता यातें ज्ञान प्रधान है । अनंतगुणात्मवस्तु तौऊ ज्ञानमात्र ही है। आचार्य बहु है ग्रन्थनमें आतमा ऐसौ कह्यौ । काहेरौं “लक्षणप्रसिद्धया लक्ष्यप्रसिद्धयर्थम् ” जैसे है
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॥ अनुभवप्रकाश || पान ८८ ॥
मन्दिर श्वेत कहिये मन्दिर श्वेतादि बहुगुण घेरे हैं । तथापि दूरितें श्वेतगुणकरि भासै तातें मुख्यतातें श्वेत मन्दिर कहिये । प्रसिद्ध लक्षण आतमामें ज्ञान है, तातें ज्ञानमात्र आतमा कह्यौ । एक एक गुणकी अनंत शक्ति अनंतपर्याय गुणकी एक अनेक भेदादि सब जाने, ज्ञानविना वस्तुसर्वस्व निर्णयरूप स्वरूपकूं न जानें, तातैं ज्ञान प्रधान है । मतिज्ञानादि ज्ञानके पर्याय हैं । सो क्षयोपशम ज्ञान अंश भेद शुद्ध भये । तातैं पर्याय लोकालोक जानैं ज्ञेयाकार ज्ञानपर्यायकरि है । ज्ञेय नाश होत परि ज्ञाननाश नाहीं तातें जेतो ज्ञेय तेतौ ज्ञान मेचक उपयोगलक्षण ज्ञान उपचारतें ज्ञानमें ज्ञेय है । तातें वस्तुस्वरूपमैं ज्ञेयकै विनाशता, ज्ञानविनाश नाहीं ॥
कोई तर्क करे - ज्ञान में सकलज्ञेय उपचारतें हैं । तौ सर्वज्ञपद उपचरित भयो उपचार झूठ है । तो कहा सर्वज्ञपद झूठ भयो ? ताको समाधान --जाकै उपचारहीमात्र लोकालोक भास्यौ तौ वाकै निश्चयज्ञानकी महिमा कौंन कहै ? यह ज्ञान
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ८९ ॥
है स्वसंवेदनही भया सबकौं जाने, आपके जाने परका जानना थपै, स्वका जानना है है थपै है। परकी उपेक्षा आप है आपकी उपेक्षा पर है। विवक्षातै वस्तुसिद्धि है,
ज्ञानतें स्वरूपानुभव है। यह अज्ञेयाधिकार लिखिये । “ज्ञातुं योग्यं ज्ञेयं " ज्ञेय है जानवेयोग्य पदार्थकौं कहिये । सो पदार्थकी तीन अवस्था हैं। द्रव्य अवस्था--३ है गुणअवस्था--पर्यायअवस्था ॥ द्रव्यअवस्था मुख्य है। काहेत? पदार्थ द्रव्यअवस्था है है न धरै तौ द्रव्यविना गुणपर्यायका व्यापना न होय, तब द्रव्य न होय, तब पदार्थ है न होय, तातें द्रव्यअवस्था मुख्य है । पीछे गुणअवस्था है। काहेत? गुणविना है
द्रव्य न होय । तातें "गुणसमुदायो द्रव्यं" ऐसा जिनवचन है । पर्यायअवस्था न है हैं होय तो वस्तुकौं परणावै कुन ? । उत्पाद व्यय ध्रुव न सधै, षड्गुणी वृद्धिहानि न है हैं होय, तब अर्थपर्यायका अभाव भये, वस्तु अभाव होय, तारौं पर्यायअवस्थातें । है सर्वसिद्धि है ॥
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९०॥
द्रव्य गुणपर्यायकौं व्यापै, गुण द्रव्यपर्यायकों व्यापै, पर्याय गुणद्रव्यकौं व्यापै, है है तीनौं अवस्था पदार्थकी है। पदार्थ सत्वअवस्थाकरि अस्ति है, परचतुष्टय अवस्थालें । हैं नास्ति है, गुणअवस्था अनेक है, वस्तुअवस्थातें एक है, गुणादिभेदकरि भेदरूप है, है है अभेदवस्तुस्वरूपकरि अभेद है, द्रव्यकरि निय है, पर्यायकरि अनित्य है, शुद्धनि- है १ श्चयतें शुद्ध है, सामान्यविशेषरूप वस्तुरूप है, वस्तुत्व है, द्रव्यके भावकौं धरै द्रव्यत्व है है है, प्रमेयके भावकों धारै प्रमेयरूप है, अगुरुलघुके भावकों धरै अगुरुलघु अवस्था है, है है प्रदेशकौं धरै प्रदेशरूप है, अन्यत्वगुणलक्षणभेद अन्यकरि अन्यत्व है, स्वपरकरि अन्य है है है, नानापदार्थतें अन्य है, द्रव्यत्व है, पर्यायत्व है, सर्वगत अप्रदेशत्व है, मूर्त है, है है अमूर्त है, सक्रिय अक्रिय चेतन अचेतन कर्तृत्व अकर्तृत्व भोक्तृत्व अभोक्तृत्व नाम है है उपलक्षण क्षेत्र स्थिति संथान सरूप फल द्रव्य क्षेत्र काल भाव संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजन ह १ तत्स्वभाव अतत्स्वभाव सप्तभंगरूप अन्योन्यगुणकरि सिद्धिगतहेतुत्व स्थितिहेतुत्व है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९१ ॥ हैं अवगाहहेतुत्व वर्तनाहेतृत्व चेतनत्व मूर्तत्व विशेषगुण पदार्थ सामान्यविशेष स्वभाव है है धरै हैं । नानापदार्थ एकपदार्थकरि जैसी विवक्षा होय तैसी समझि लेणी ॥
पदार्थ सत्तारूप है। सत्ता- महासत्ता अवान्तरसत्ता दोय भेद लीया छे। सत्वं है असत्वं त्रिलक्षणं अतिलक्षणं एकत्वं अनेकत्वं सर्वपदार्थस्थितत्वं एकपदार्थस्थितत्वं है है विश्वरूपं एकरूपं अनंतपर्यायत्वं एकपर्यायत्वं द्रव्य ऐसा द्रव्यभाव सर्व द्रव्यमैं महासत्ता है है जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य स्वरूपरूप वर्ते । अवांतर सत्ता द्रव्यसत्ता, अनादिअनंतपर्यायसत्ता, है
सादिसांतस्वरूपसत्ता तीन प्रकार । द्रव्यस्वरूपसत्ता गुणसत्ता पर्यायसत्ता गुणसत्ताका हैं अनंतभेद ज्ञानसत्ता दरसनसत्ता अनंतगुणसत्ता पृथक्तभेद न छे । अनन्यत्वभेद छ । है ( जेते कछु निज द्रव्य गुण पूर द्रव्यगुण हैं । जेतीक सब द्रव्यनकी अतीत अनागत है है वर्तमानपर्याय तीनकालके नवपदार्थ द्रव्य गुण पर्याय उत्पाद व्यय ध्रुव सब ज्ञेयनाम है है आगममैं कह्या है। ज्ञानगोचर जो कछु होय, सो सव ज्ञेयनाम जानौं " ज्ञातुं है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९२॥ है योग्यं ज्ञेयं ” यह ज्ञेयाधिकार ज्ञेय जानि परकौं व्यंजन करें निज ज्ञेयकौं जानि १ स्वरूपानुभव करणां ॥
॥ आगें निजधर्माधिकार कहिये हैं । निजधर्म वस्तुस्वभाव सो आतमा निजधर्म निर्विकार सम्यक् यथारूप अनंत- है है गुणपर्यायस्वभाव सो धर्म कहिये । निश्चयज्ञानदर्शनादि अपना धर्म है। जीव निज-है है धर्म धरतही परमशुद्ध है । निज कहिये आप, तिसका धर्म कहिये स्वभाव, सोई है निजधर्म कहिये। अपने स्वभावरूप सब पदार्थ हैं। उनका धर्म उनका निजधर्म है। है
आतमामैं है । तातें दर्शन ज्ञानहीकौं निजधर्म ऐसा मति कहौ । ताको समाधान है है स्वभाव तौ सब सबही कनै है। उनका धर्म उनका स्वभाव यह तौ यौही है। परितारण है है धर्म, सजीवधर्म, प्रकाशधर्म, उनके धर्मकों प्रगटै । ऐसा धर्म परमधर्म, हितरूपधर्म, है ६ असाधारणधर्म, अविनाशी सुखरूपधर्म, चेतनापाणधर्म, परमेश्वरधर्म, सर्वोपरिधर्म, है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९३ ॥ अनंतगुणधर्म, शुद्धस्वरूपपरिणतिधर्म , महिमा अपारधारक धर्म , निजशुद्धात्मस्वभा१ वरूपधर्म, सो निजधर्म है । इनका विशेषभेद कहिये हैं। है यह अनादिसंसारमैं जीव कर्मयोगते जन्मादिदुःख भोगवै हैं। इस परधर्मकों निजधर्म मानै हैं । तातै दुःख पावै हैं । यह तो सांच है। काहेत? जो सिरदार प्रधान !
पुरुषकौं निंद्यमैं गिणे सो दण्ड है । निंद्यदेहमैं चेतनधर्म मानें, सो दुःख पावैही पावै ।। है शुद्धचैतन्यधर्मकौं जब धर्म जानै तब संसारतारणधर्म अनंतचेतनारूपधर्म तातें सुजीव-है
धर्म स्वज्ञेय परज्ञेय प्रकाशै, याते प्रकाशधर्म सब द्रव्यनिके धर्म प्रगट याने कीये उनके है धर्मकौं प्रगटै ॥ सवतै उत्तम यातै परधर्म धर्म निजरूप” अनंतसुख होय । यात है है हितधर्म औरमैं न पाइये । यातें असाधारणधर्म अविनाशी आनंद सहजरूप ताते हैं
अविनाशी सुखरूपधर्म चेतनाप्राण धरै, तातें चेतनाप्राणधर्म परमेश्वर सहजरूप ऐसे स्वभावमय परमेश्वर धर्म सबतें उत्कृष्ट है । तातें सर्वोपरि धर्म अनंतगुण है स्वभाव
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॥अनुमवप्रकाश ॥ पान ९४ ॥ हैजाको तातें अनंतगुणधर्म शुद्धस्वरूप सदा परणमै शुद्ध भयें । तातें शुद्धस्वरूपपरिहै णतिधर्म अपारमहिमाकौं लीये । तातें अपारमहिमाधारक धर्म अनंतशक्तिकौं धरै ॥
___अनंतशक्तिरूप धर्म अनंतपर्याय एक गुणकी, ऐसे अनंत गुण अनंतमहिमा१ को धरै, सो निजधर्मकी महिमा कहालौं कहिये ? । एकोदेश निजधर्म धरैहूं संसारहै पार होय है। काहेत ? एकोदेश भये सर्वोदेश होयही होय । तातें जानियौं परधर्म-है इतें अनंतदुःख, निजधर्मः अनंतसुख ॥ यातें निजधर्मकों धारि अपना परमेश्वरपद है ३ प्रगट कीजै । निजधर्मकी धारणा अनुभवतें होय । निजधर्म भये अनुभव होय । याते है १ अनुभवसार सिद्धिनिमित्त निजधर्म अधिकार कह्या ॥
॥ आगें मिश्रधर्मअधिकार कहिये हैं। सो मिश्रधर्म अंतरात्माकै है, सो काहेरौं सम्यक् स्वरूप श्रद्धान जेते कषाय । है अंश हैं तेते रागद्वेषधारा है। आत्मश्रद्धाभावमैं आनंद होय है। कषाय सर्वथा न है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९५॥ गई मुख्य श्रद्धाभाव गौण परभाव एक अखण्ड चेतनाभाव सर्वथा न भया, ताते मिश्रभाव है। अज्ञानभाव बारमैतक एकोदेश ज्ञानचेतना है। अरु कर्मचेतनाभी है।
तातें मिश्रधारा है। स्वरूपउपयोगमैं प्रतीत भई । परि शुभकर्मकी धारा वहै है। । तिनसौं रंजकभाव कर्मधारामैं है । परश्रद्धानस्वरूप मुक्तिकारण है। भववाधा मेट- है है नकौं समर्थ है । ऐसा कोई कर्मधाराका दुर्निवार आप है। प्रतीतिमैं स्वरूप ठावा है है कीया है । तौहू सर्वथा न्यारा न होय है, मिश्ररूप है । कोई प्रश्न करै-कि, सम्यक् है है गुण सर्वथा क्षायिकसम्यग्दृष्टिकै भया है वा न भया है? ताकौं समाधान कहौहै जो कहुगे, सर्वथा भया, तौ सिद्ध कहौ । काहेरौं ? एकरण सर्वथा विमल भये सब है
शुद्ध होय सम्यक्गुण सब गुणमैं फैल्या है, सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सब गुण सम्यक् । है भये । सर्वथा सम्यग्ज्ञान नहीं, एकोदेश सम्यग्ज्ञान है । सर्वथा ज्ञान सम्यक् होता है है तौ सर्वथा सम्यक् गुण शुद्ध होता, तारौं सर्वथा न कहिये । जो किंचित् सम्यक्गुण है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ९६ ॥ । है शुद्ध कहिये, तौ सम्यक्णका घातक मिथ्यात्व अनंतानुबंधी कर्म था सो तो रह्या ।। हैं जिस गुणका आवरण जाय सो गुणं शुद्ध होय । ताते किंचत् हूं न वणै ॥ है सो कैसैं है, सो समाधान करिये है । सो अवरण तौ गया परि सब गुण सर्वथा । १ सम्यक् न भये । आवरण गयेतें सम्यक् सब गुण सर्वथा न भये ताः परमसम्यक् नाहीं। है हैं सवगुण साक्षात् सर्वथा शुद्ध सम्यक् होय तब परमसम्यक् ऐसा नाम होय ॥ विवक्षाप्र-१ हैं माणतें कथन प्रमाण है । तिस दर्शनपरि पौद्गलिक स्थिति जैसे नाश भई तबही इस हैं है जीवका जो सम्यक्त्वगुण मिथ्यात्वरूप परणम्या था, सोई सम्यक्गुण संपूर्ण स्वभावरूप है ई होय परणम्यां प्रगट भया । चेतन अचेतनकी जुदी प्रतीतिसौं सम्यक्तगुण निज जाति है १ स्वरूप होय परणम्या, तिसका लक्षण 'ज्ञानगुण अनंतशक्ति न करि विकाररूप होय है है रह्या था, तिन गुणकी अनंतशक्तिविष केतेक शक्ति प्रगट भई । सामान्यसौं नाम है है भयो । मति श्रुति कहिये । अथवा निश्चयज्ञान श्रुतपर्याय कहिये । जघन्यज्ञान कहिये।
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९७ ॥ है अवर सर्वज्ञानशक्ति रही, ते अज्ञान विकाररूप वगै है। इन विकारशक्तिनकों धर्म
धारारूप कहिये । तैसेंही जीवकै दर्शनशक्ति अदर्शनरूप होयगी । तैसेंही जीवकै है चारित्रकी केतेक चारित्ररूप केतेक अवरविकाररूप हैं। ऐसें भोगगुणकी सब गुण जेतेक है निरावरण सो शुद्ध । अवर विकार सो सर्व मिश्रभाव भया । प्रतीतिरूप ज्ञानमैं सर्वशुद्ध श्रद्धाभाव भया। परि आवरणज्ञानका तथा और गुणका लग्या ह । तातें मिश्रभाव है स्वसंवेदन है । परि सर्वप्रत्यक्ष नाहीं । सर्वकर्मअंश गये शुद्ध है । अघाति रहै शुद्ध है | घातियानाशर्ते परि सकलपरमातमा है । प्रत्यक्ष ज्ञान तौ भया है। है सिद्ध निकल सकलकर्मरहित परमातमा है। अंतर आतमाक ज्ञानधारा कर्मधारा है है । कोई प्रश्न करै- जो वारमैं दोय धारा कि एक ज्ञानधाराही है? जो ज्ञानधाराही
है, तो अंतर आतमा मात कहौं । जो दोय धारा है तौ वारमै मोहक्षय भयो राग द्वेष है मोह सब गये दूसरी कर्मधारा कहां रही? ताको समाधान-ज्ञान परोक्ष है केवलज्ञाना. है
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वरण है । तातैं अज्ञानभाव वारमैंतक है । तातैं अंतर आतमा है । प्रत्यक्षज्ञानविना ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९८ ॥ परमातमा नाहीं । कषाय गये परि अज्ञानभाव है । तातैं परमात्मा नाहीं अंतर है, वारमैं अज्ञान कहा ? ताकौ समाधान - केवलज्ञानविना सकलपर्याय न भासै सोही अज्ञान निज प्रत्यक्षविनाहू अज्ञान है । तातैं अज्ञानसंज्ञा भई । यह मिश्रअधिकार ॥ आ, निश्चयकरि वस्तुका स्वरूप जैसा है, ताका कछु वर्णन कीजिये है । वस्तु निज अपना स्वरूप अनंतंगुणमय तिनमैं दर्शन ज्ञान चारित्र प्रधान काहे तें ? देखन जानन परिणवनकरि, वेदनतें रसास्वाद अनुभव होय, तहां सुख कित प्रगटै, तिनकरि चेतना जानी परि, तब चेतनसंत्ता, चेतन वस्तुत्व, चेतनद्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व ये गाये । तातैं दर्शन ज्ञान चारित्र जीववस्तुका सर्वस्व है । द्रव्य गुण पर्याय ये वस्तुकी अवस्था है | अनादिनिधन वस्तु अखण्डचेतनारूप वर्ते है । परि अनादिकर्मजोगतें अशुद्ध होय रही है । सुखनिधानकौं न जानें है, तौऊ शुद्धस्वरूप है ॥
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९९ ॥ - जैसें काहूनें कोई एक ज्ञानवान पुरुषकों पूछा- हमकौं शुद्धचेतनकी प्राप्ति है बताओ ॥ तब ता पुरुषनें कह्या एक अमुका ज्ञानवान है तापासि जावो, तुमकौं । है वो बतावैगा, प्राप्ति करैगा । तब वो गयो । जाय, प्रश्न कियो-हमकू चेतनकी प्राप्ति । है करौ। तब तासौ कह्यौ, जु तुम एक दरियावमैं मछ रहै है, तासमीप जावो । तुमकौं है है वो मछ चैतन्यप्राप्ति करैगो । तब वाके उपदेशसौं वो नर ता मछसमीप गयो, जाय । है प्रश्न कीयो, हमको शुद्धचैतन्यकी प्राप्ति करौ। तब मछ ऐसौ वचन कह्यौ, हमारौ है एक काम है, सो पहलै करो, तो पीछं तुमकौं चिदानंदमैं लीन करै । तुम बड़े संत है हौ, हमारो कार्य काहूनैं अबतक न कीयो, तुम पराक्रमी दीसौ हौ । तात यह है है नियम है, हमारो काज कीयां, अवश्य तुमारो काज करेंगे । ठीक जानौं तब वो है
पुरुष बोल्यौ, तुमारो कारिज करौंगौ संदेह नाहीं करौ । तब मछ. वासौं कह्यौ, हम बहोत दिनके तिसाये या दरियावमें रहे हैं। हमारी तृषा न गई । पाणीको जोग न है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान १०० ॥ १ जुखौ । कहीँ जतनकरि जल ल्यायो, तुम बडो उपकार करौ, हमारी तृषा मेटो, है है महाजनकी चाल है परदुःख मेंटे। तातें यह उपगार करौ हम तुमकौं चिदानन्द है है प्रत्यक्ष दिखाई प्राप्ति करेंगे।
___ तब वो पुरुष बोल्यौ तुम ऐसे काहे कहौ । जलसमूहमांहि तुम सदाही रहो है हौ, ऐसे मति कहौ, जो, जल लावो, दरियाववोर देखो, यह जलसौं प्रत्यक्ष भखौ है है है। तब मछ बोल्यौ, ऐसैं तुम कहत हो, सो यह बात तुम मांनत हो, तो तुम है हैं चिदानंद प्रत्यक्ष हो, चेतना है तो ऐसो विचार तुमने कीयो है। अब तुम हमकौं है
पछण आये हौ, तातें चिदानंद हंस परमेश्वर तुमही हौ। संदेह त्यागौ थिर होइ । है आपणौ चैतन्यस्वरूप अनुभवौ परके अनादि जोग में हूं आतमा जैसाका तैसा है, है है परमै अत्यन्त गुप्त भया है। तोऊ देखनेका स्वभाव न गया। ज्ञानभाव न गया। है परिणाम न भया । परमैं बरननैनै आवस्या, मलिन भया परि निश्चयकरि अखण्ड है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १०१॥ स्वरूप चिदानंद अनादिका है, सो ज्यौंका सौं बण्या है। कछु घट्या बढ्या नाहीं है भरमकल्पनाते स्वरूप भुल्या है। परहीको आपा मान्या तौ कहा भया ॥
जैसे कोई चिंतामणि करविर्षे भूलि काचखण्डकौं रतन मांनि चलावै तौ वह है रतन न होय, चिंतामणिको काच जानें, तो काच न होय, चिंतामणिपणा न जाय। है तैसैं आतमाकौं पर जानें तौ पर न होय । परकौं आपा जानैं तो आपा न होय ।। है वस्तु अपने स्वभावका त्यजन काहू काल न करै । वस्तु वस्तुत्वकौं न तजै । अपने है हैं द्रव्यकौं न तजै । अपने प्रमाणकौं न तजै । अपने प्रदेशकौं न तजै । इत्यादि भावकों है है न तजै। तातैं अनादि प्रदेशप्रमाणकौं न तजै । शुद्ध अशुद्ध दोऊ अवस्थामैं अपनी है
द्रव्य क्षेत्र काल भावकी दशा न तजै । महिमा अनंत अमिट है । काहूंपै न मैटी जाय। हैं निश्चयकरि जो है सो है। तातै निजवस्तुका श्रद्धान ज्ञानादि अनंतगुणमात्र जांनि है है अनंतसुख करै, तो सुखी होय । उपायतै उपेय पाइये है । सो उपेय आनंदघन पर है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान, १०२ ॥
मातमा परमेश्वर है । ताकौ उपाय यातें करणौ, जु, संसारअवस्था ही शरीर में कर्मबंधतें गुप्त भयो परभावना दुःखी भयौ अपनौं परमेश्वरपद न पायो । ताकौ उपाय होय तौ उपेय पाइये, सो उपाय कहिये हैं ।।.
उपाय अपने स्वरूप पावनेका अपनां उपयोग है । और उपाय तप जप संयमादि शुभ हैं। जिनमें परमात्माकी भक्ति शुभपरि प्रतीतितैं कारणभी है । कारण ध्यान कार्यकी सिद्धि है । ग्रन्थ उपदेशभी कारण है । परि उपभोग आये शुद्ध है । तातें उपयोग की एकोदेश शुद्धकी चढनि ज्यौंज्यों होय त्यौंत्यों मोक्षमार्गको चढे ॥ यह श्रीजिनेंद्र भगवानका निरावाध उपदेश है । सकल उपाधि अनादितें लगी आई । जब उपयोग कर समाधि लागै, साक्षात् शिवपन्थ सुगम होय । अनेक संत स्वरूपसमाधि धरि धरि पार भये ॥
॥ अव कछुक समाधिवर्णन कीजिये हैं ||
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १०३ ॥
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समाधि तौ प्रथम ध्यान भये होय है । सो ध्यान चिन्तानिरोध एकाग्र भये होय है । सो चिन्तानिरोधं रागद्वेष के मिटें होय हैं । सो राग द्वेष इष्ट अनिष्ट समाज मिटे, मिटे है । तातें जीव जे समाधिवांछक हैं, ते इष्ट अनिष्टका समागम मेटि रागद्वेप त्यागि चिंता मेटि ध्यान में मन धरि थिरत्व स्वरूपमैं समाधि लगाई निजानन्द भेटौ स्वरूपमैं वीतरागतात ज्ञानभाव होय तब समाधि उपजै । वह अपने स्वरूपमैं मन लीन करे | द्रव्यगुणपर्याय मैं परिणाम लीन लय समाधि ऐसी होय है ||
इन्द्रादि संपदाके भोग रोगवत भासै । द्रव्य द्रवणतैं नाम पाईये है । गुणकौं द्रवै सो द्रवत्वलक्षण परिणाममैं तातें गुणद्रव्य मैं परिणाम लीन होय । गुणद्रव्य मैं द्रवत्व लक्षण है । तौ परिणामसौं द्रव्य गुण मिलि गये तातैं द्रव्यत्वकी एकोदेशता साधककै ऐसी भई जो परीषह अनेककी वेदनां न वेदे हैं । रसास्वादमैं लीन आनंदरस तृप्ति भया । जब मन परमेश्वरमैं मिलै लीन होय न निकसै परमानंद वेदै स्वरूप धारणा ॥
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॥ अनुभवप्रकाश || पान १०४ ॥
निरंतर जहां अचलज्योतिका विलास अनुभवप्रकाश मैं भया उपयोग में परिणाम लगे ज्यौंज्यों दर्शन ज्ञान चेतना स्वरूप अनूप अखण्डित अनंतगुणमण्डितकौं जानि रसास्वाद ले त्यौंत्यौं परविस्मरण होय पर उपाधिकी लीनता मिटै । समाधि प्रगटै । तब उत्कृष्ट सम्यक्प्रकार स्वरूपवेत्ता होय ॥ सम्यग्ज्ञान भये वस्तुकी महिमा जानै । जानतां आनंद होय । ज्ञान ज्ञानकौं जानैं । ज्ञान दर्शनकौं जानें । ज्ञान सब गुणक जानें । द्रव्यकौं जानें पर्यायकों जानें एकोदेश भेद साधक ज्ञान जानें । ज्ञानकरि वस्तु जानतां परमपद पावै । कासा सुख ( संपूर्णसुख ) परोक्षज्ञानही मैं है । प्रत्यक्षप्रतीति मैं वेदै है । तहां आनंद ऐसा होय है ।।
संप्रज्ञात समाधिमैं दुःखादिवेदना प्रत्यक्ष भये हू न वेदै । विधान स्वरूप वेदनेका है । मन विकार विलय जेते अंशकरि गया तेती समाधि भई । सम्यग्ज्ञानकरि जेता भेद वस्तुका गुणनकरि जान्या तेता सुख आनंद बढ्या । विश्राम भये स्वरूप
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। अनुभवप्रकाश ॥ पान १०५॥
है थिरता पाय समाधि लागी ज्ञानधारा निरावरण होय ज्यौंज्यौं निजतत्व जानै त्यौंत्यों है है विशुद्धता केवलकरि ज्ञान परिणति परमपुरुषसौं मिली, निज महिमा प्रगट करै। तहां है है अपूर्व आनंद भावका लखाव होय तब समाधि स्वरूपकी कहिये ॥ है तहां अनादि अज्ञानका भ्रमभाव आकुलतामूल था सो मिट्या, अनात्म अभ्याई ई सके अभावतें सहज पदका भाव भावत, भववासना विलावत, दरसावत परमपदका ई स्थान गुणका निधान, अनलाम भगवान सकल पदार्थका जाननरूप ज्ञानकी है है प्रतीति प्रमाणभावकर नवनिधान आदि जगतका विधान झूठा भास्या । तब है है प्रकाश्या आत्मभाव लखाव आपके तैं कीना, तव चेतनभाव लीना, शुद्धधारणा है धरी, निजभावना करी, शिवपदकौं अनुसरी, आनंदरससौं भरी, भवबाधा अबाधा है है जहां सदा मुदा सेती एती शक्ती बढाई, शिवसुखाई, चिदानंदअधिकाई, ग्रन्थग्र-३ न्थनमैं गाई, सो समाधित पाईये है।
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १०६ ॥ स्वरूपानंद पद भेदी समाधितै होय है । वस्तुका स्वरूप गुणके जानै तें जानें । गुणका पुंज वस्तुमय है। वस्तु अभेद है। भेदगुण गुणीका गुणकरि भया । तातें है गुणका भेद वस्तु अभेद जनाव.कौं कारण है ॥
वितर्क कहिये-द्रव्यका शब्द ताका अर्थ भावना भावश्रुत श्रुतमैं स्वरूप है १ अनुभवकरण कह्या । परमातम उपादेय कह्या । ताहीरूप भाव सो भावश्रुत रस पीव ।। है अमरपद समाधित है। विचार अनादि भवभावनका नाश चिदानंद द्रव्य गुण है है पर्यायका विचार न्यारा जांनि दर्शन ज्ञान वानिगीकौं पिछानि, चेतनमें मम होता है है ज्यौंन्यौं उपयोग स्वरूप लक्षणकौं लक्ष्य रसस्वाद पीवै, सो स्वपरभेद विचारने सार है । पद पाय समाधि लागी। अपार महिमा जाकी परमपद सो पाया। अनादि पर है इन्द्रियजनित आनंद माने था, सो मेट्या । ज्ञानानंदमै समाधि भई वस्तु वेदी आनंद है भया । गुण वेदि आनंद भया। परिणति विश्राम स्वरूपमै लीया, तब आनंद भया। है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १०७ ।। एकोदेश स्वरूपानंद ऐसा है ।।
जहां इन्द्रियविकार बल विलय भया है, मन विकार न होय, सुख अनाकुल है रस रूप समाधि जागी है, “अहं ब्रह्म” “अहं अस्मि" ब्रह्म प्रतीति भावनमैं हैं थिरतामै समाधि भई; तहां आनंद भया । सो केतेक काललगु 'अहं' ऐसा भाव है है रहै, फिर समाधिमैं 'अहंपणा' तौ छुटै, 'अस्मि' कहिये है, ऐसा भाव रहै तहां है १ दर्शन ज्ञानमय हौं, मै समाधि लागें हौं, ऐसा हू रहणा विचार है ॥
इसके मिटें विशेष ऐसा होय जो द्रव्यश्रुतवितर्कपणा मिटी। एकत्व स्वरूपमें १ भया एकताका रसरूप मन लीन भया समाधि लागी तहां विचारभेद मिट्या अनु-है भव वीतरागरूप स्वसंवेदनभाव भया । एकत्व चेतनामैं मन लागा लीन भया। तहां है इन्द्रियजनित आनंदके अभावते स्वभाव लखावका रसास्वाद करि आनंद वढ्या तहां है १ फिरि अस्मिभाव ज्ञानज्योतिमैं था सोभी थक्या ॥
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॥ अनुभवप्रकाश || पान १०८ ॥
आगे विवेकका स्वरूपका स्वरूप परिणति शुद्धीका ऐसा जहां परमात्माका विलास नजीक भया तहां अनंतगुणका रस फिरि परिणाम वेदि समाधि लागी । निर्विकार धर्मका विलास प्रकाश भया । प्रतीति रागादिरहितभावन में मनोविकार बहोत गया । तब आगें अंश प्रज्ञात भया । तब परके जाननें : विस्मरणभाव आया । तब केवलज्ञान अतिशीघ्रकालमें पावै । परमात्मा होय लोकालोक लखावे | ऐसी अनुभवकी महिमा मनके विकार मिटैं हैं । सो मनविकार मोहके अभाव भयें मिटै है । सकलजीवकौं मोह महारिपु है । अनादि संसारी जीवकों नचावै है । चउरासीमैं 1 अरु संसारी हर्ष मानि मानि भवसमुद्रमैं गिरे हैं, परे हैं। आपाको धन्य मान है । देखो धिठौ ही भूलितें कैसी पकरी है । नैक निजनिधि अनंतसुखदायक कौन सभार है । यातें इनही जीवनकौं श्रीगुरूपदेशामृत पानक जोग्य है । इसतें मोह मिटै अनुभव प्रगटै सो कहिये --
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॥ अनुभवप्रकाश ।। पान १०९॥ है प्रथम श्रीजिनेन्द्रदेव आज्ञा प्रतीति करै, तहां पाईं भगवत्प्रणीत तत्व उपादेय है विचारै । चेतन प्रकाश अनंतसुखधाम , अमल अभिराम, आत्माराम पररहित उपादेय है
पर हेय स्वपरभेदज्ञानका निरंतर अभ्यासतें शुद्धचैतन्यतत्वकी लब्धि होय तिहिते है है राग द्वेष मोह मिटै । कर्मसंवर होय । तब कर्म मिटवा निजज्ञानतें निर्जरा होय । तब है
सकलकर्मक्षय निजपरिणाम हुवा भावमोक्ष होय । तब द्रव्यमोक्ष होयही होय । ताते है भेदज्ञान अभ्यास. परमपद सिद्ध सो भेदज्ञान उपजावाको विचार कहिये है ।। है ज्ञानभाव जाननरूप उपयोग विभावभाव अपनें जान है । सो विभावके जाननेकी है
शक्ति आत्मा आपणी जाने । जानि रूप परिणमन करै । ज्ञानरस पीवै विभावनकौं ? है न्यारे न्यारे जाने । विभावसुधाधारा ज्ञानरूपपरणाम सुधाधारा न्यारी । धारा दोन्यौ ।
जानै । पुद्गल अंश आठ कर्म शरीरभिन्न है जड है, । चेतन उपयोगमय है। इनमें हैं विवेचन करै । जुदा प्रतीतिभाव करै, प्रत्यक्ष जड रहै। सदा जामैं चेतना प्रवेश न ?
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११० ॥
होय । चेतना जड न होय यह प्रत्यक्ष सर्व ग्रन्थ कहै सब जन कहै । जिनवाणी विशेषकर कहै । अपनें जानíमैं आवै । शरीर जड अनंते त्यागे । दर्शनज्ञान सदा साथि रहवो कीया सो अबभी देखनें जाननेंवाला यह मेरा उपयोग सोही मेरा स्वरूप है । इस उपयोगी अनउपयोगी विचारत प्रतीति जड चेतनकी आवै । विभाव कर्मचेतना है । कर्म राग द्वेष मोह भावकर्म तिसमैं चेतना परणाम है । तव चिद्विकार होय । इस चिदिकारकों आपकरि आपा मलिन कीया है । केवलज्ञानप्रकाश आत्माका विलास है । तिसकौं न सभारे है । मोहवशर्तें ग्रन्थकों सुणै है अरु जानै है । शरीर विनसैगा परिवार धन तिया पुत्र येभी न रहैगे । परि इनसौं हित करै । नरकबंध परै । अनंतदुःखकारणकौं सुख समझे ॥
ऐसी अज्ञानता मोहवशकरि है । तातैं ज्ञानप्रकाश मेरा उपयोग सदा मेरा स्वरूप है। सो सदा स्वभाव मेरा मैं हौं । कबहूं जिसका वियोग न होय अनंतमहिमा भण्डार
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १११ ॥
१ अविकार सारसरूप दुरनिवार मोहसौं रहित होय । अनुपम आनंदघनकी भावना है है करणी । अंश अंश परका जडवा परजीव सब स्वरूपसौं भिन्न जानि दर्शन ज्ञान चारि-है
त्रादि अनंतगुणमय हमारा स्वरूप है। प्रतीतिमैं ऐसे भाव करत पर न्यारा भासै विभाव ऊफदमल आपके न रमतै भया । तिसतै भरम मेटि विभाव न होय स्वभाव है प्रगटै अनादि अज्ञानतें गुप्तज्ञान भया । शुद्ध अशुद्ध दोऊ दशामें ज्ञान शासती शक्ति है है कौं लीये चिद्विकारभाव क्रोधादिरूप भये होय सोही भाव मेटि निर्विकार सहजभाव है है आप आपमैं आचरण विश्राम थिरतापरणामकरि करै। जो वाह्यपरिणाम उठे है सो है है अशुद्ध है सो परिणामका करणहार अशुध्द होय है । बाह्य विकारमैं न आवै । चेतना है है नांव उपयोगरूप अपनी इस ज्ञायक शक्तिकौं नीकै जानै तौ निजरूप ावा होय ।। हुप्रतीति चेतन उपयोगकी करत करत परसौं स्वामित्व मेटि मेटि स्वरूप रसास्वाद है १ चढता चढता जाय । तब शुद्ध उपयोग स्वरस पूर्ण विस्तार पावै । तब कृतकृत्य नि. है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११२ ॥
वसै। यह श्रीजिनेन्द्रशासन मैं स्याद्वादविद्या के बलतें निजज्ञान कला कौं पाय अनाकुल पद अपना करै । इहां सब कहने का तात्पर्य यह है । जो परकी अपना पति सर्वथा मेटि स्वरसरसास्वादरूप शुध्द उपयोग करिये । रागद्वेष विषमव्याधि है सो मेटि मेटि परमपद अमर होय । अतीन्द्रिय अखण्ड अतुल अनाकुल सुख आप पदमैं स्वसंवेदन प्रत्यक्षकरि वेदिये । सकल संत मुनिजन पंचपरमगुरुस्वरूप अनुभवक करे हैं । तातैं महान् जन- जा पंथक पकरि पार भये सोही अविनाशीपुरका पंथ ज्ञानीजननकौं पकरणा अनंतकल्याणका मूल है । परिणाम चेतनाद्रव्य चेतना में लीन भयें अचलपद ज्ञानज्योतिका उद्योत होय है । एकोदेश उपयोग शुद्ध करि स्वरूपशक्तिकौं ज्ञानद्वारमैं जाननलक्षण करि जानें । लक्ष्यलक्षणप्रकाश आपका आपमैं भासै । तब सहजधारा वाही । निजशक्ति व्यक्त करता करता संपूर्ण व्यक्त करता करता संपूर्णव्यक्तत्ता करै । तव यथावत् जैसा तत्त्व है तैसा प्रत्यक्ष लखावै । देखो कोई भगल विद्याकरि
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११३ ॥
कांकरेनौं हरि हीरा मोती दिखावै है। बुहारीके तृणकौं सर्पकरि दिखावै है। है तहां वस्तु लोकनकौं साची दरसै । परि साची नाहीं । तेसै परमैं निज मांनि आपकों है हैं सुख कल्पै सो सर्वथा झूठ है । सुखका प्रकाश परम अखण्ड चेतनाके विलासमैं है। है है शुद्धस्वरूप आप परकौं (खौ )जना करें तब पावै । वारवार विस्तार कहिणां इस है
वाखौ आवै है। अनादिका अविद्यामै पगि रहा है। मोहकी अत्यंत निविड गांठि ई पारी है । ताः स्वपदकी भूलि भई है । भेदज्ञान अमृतरस पीवै । तब अनंतगुणधाम है
अभिरामकी. अनंतशक्तिकौं अनंतमहिमा प्रगट करें। यह सब कथनका मूल है। हूँ परपरिणाम दुःखधाम जानि भानि परकी मेटि स्वरस सेवन करणां अरु निदान परि दिष्टि । है कीजै। विनश्वर परदुःखमूलका सेवन अनादि कीया। जन्मादि दुःख भये। अब नरभवमैं है
संत संगते तत्वविचार कारण मिल्या तौ फेरि कहा अनादिभवसंतानकी बाधाके करणहार है है परभाव सेइये । जिसतै अखंडित अनाकुल अविनाशी अनुपम अतुल होय सोहू भाव है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११४ ॥ है करिये। जो भाव मनोहर जानि मोह करै है । अपने आतमाकौं झूठी अविद्या के विनो-है है दकरि ठग है। सकल जगत चारित्र झूठ वन्याही है, सो मोहते न जाने है। जो स्वरस-३
सेवन तो पर प्रीति रीति रंच हूं न धारै । अनंतमहिमाभाण्डारको ज्ञानचेतनामें आपा है १ अनुभवै । जो जो उपयोग उठै सौ मैं हौँ ऐसा निश्चय भावनमैं कर, तौ तिरही तिरै । है
अनादिका विचार करै । अनादिका पर आपा जानि दुःख सह्या । अब श्रीगुरुनें ऐसा है उपदेश कह्या है । तिसकौं सत्यकार मानतही श्रद्धाः मुक्तिका नाथ होय है । ताते धन्य सद्गुरु जिनौंने भवगर्भमेसौं काढनेका उपाय दिखाया। तातै श्रीगुरुकासाह उपकारी कोई नाहीं । ऐसें जानि श्रीगुरुके वचनप्रतीतिते पार व्हैना ॥
जेता अनुराग विषयनमैं करै है, मित्र पुत्र भार्या धन शरीरमै करै है, तेता है है रुचि श्रद्धा प्रतीतिभाव स्वरूपमैं तथा पंचपरमगुरुमै करै, तौ मुक्ति अतिसुगम होय । है पंचपरमगुरुरागभी ऐसा है, जैसा संध्याका राग सूर्य अस्तताका कारण है प्रभातकी है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११५॥ है संध्याकी ललाई सूर्यउदयकौं करै है। तातै विविध परमगुरुविना शरीरादिराग केवल है है ज्ञानकौं अस्तताकौं कारण है। पंच परमगुरुका राग केवलज्ञान उदयकौं कारण है। है तातें विशेषकरि परमधर्मके दाता परमधर्मका अनुभवराग परमसुखदायक है ॥ हैं अर्थ अनंत अनर्थकों करै, सो किसही अर्थ नहीं, अर्थ सोही परमार्थ साधै । है
तिसकरि कामसौं किस काम निजकामनासै काम सोही सुकाम सुधारै। धर्म मिथ्यारूप है अनंतसंसार करै, सो कहा धर्म? सर्वज्ञप्रणीत निश्चय निजधर्म व्यवहार रत्नत्रयरूप है कारण । मोक्ष सोही फेरि कर्म न बंधे, ऐसा विचारणा-जैसैं दीपक मंदिरमैं धरते है प्रकाश होय तो सब सूझै, तैसें ज्ञानीको ज्ञानप्रकाशसौं सव सूझै ॥
कैसे ज्ञानकरि विचारै, शरीरमैं चेतन है, दिष्टिद्धारकरि देखै है। ज्ञानद्वारकरि है जानै है । अपने उपयोगकरि आप चेतन हौं। आपा ऐसें जानै देहमैं देहकौं देखने है हारा मेरा स्वरूप चेतनरूप है । तौ जडकौं चलावै है, चेतनप्रेरक है । अचेतन अनु- है
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११६॥ पयोगी जड न देखै न जानै । यह तौ प्रसिद्ध है, जो देखै जानें। शरीर तौ गत्यंतर है जीव होय, तब शरीर क्यों न देखै ? तातें यह देखनेजाननेंकरि आपा चेतनरूप है प्रत्यक्ष ठावा करि स्वरूपकौं चेतन मांनि अचेतनकै अभिमान तजनां मोक्षका मूल है ॥
शरीरवासनाका त्यागी खरूप आपा अवगाढ चेतनस्वरूप करि भावना । उजडकौं वस्ती मानै है। चेतन वस्तीकौं उजड मान है। ऐसी भुलि मेटी, चेतनावस्ती शासती है। जहां वसै तो अपना अनंतगुणनिधान न मुसावै । निजधनका धणी परमसाह होय । तब अनंतसुखव्यापारमै अविनाशी नफा होय । अनादि है परमैं आपा मान्या । परकौं ग्रहण करत परवस्तुका चोर भया जनमाहि दुःख दण्ड है भोगवै है । विवेकराजाका अमल होय परग्रहण चोरी मिटै । तब आप साहपद धरि है
सुखी होय, तब निजपरिणतिरमणीकरि अपना निजघर थिर करै। अनादि अथिरहै पदका प्रवेश था, ताकौं सागि अखण्ड अविनाशी पदकौं पहुचै यह साक्षात् शिवमा
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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११७॥
र्गस्वरूपकौं । अनुभव यह शिवपद स्वरूपकौं, अनुभव त्रिभुवनसार, अनुभव कल्याण है अनंत, अनुभव महिमाभण्डार, अनुभव अतुलबोधफल, अनुभव स्वरसरस , अनुभव है १ स्वसंवेदन, अनुभव तृप्तिभाव , अनुभव अखण्डपद सर्वस्व , अनुभव रसास्वाद, अनुभव है हैं विमलरूपं, अनुभव अचलज्योतिरूप प्रगटकरण, अनुभव अनुभवके रसमैं अनंत है है गुणकार रस है, पंचपरमगुरु अनुभवतै भये होंहिगे। अनुभवसौं लगेगे। सकलसंत है है महंत भगवंत तातें जे गुणवंत हैं, ते अनुभवकौं करौ। सकलजीवराशि अनुभवौ ।
स्वरूपकौं । यह अनुभवपंथ निरगंथ साधि साधि भगवंत भये ।। _ परिग्रहवंत सम्यग्दृष्टिहू अनुभवकौं कबहू कबहू करै हैं, तेहू धन्य हैं । मुक्तिके साधक हैं।जा समय स्वरूप अनुभव करै है, ता समय सिद्धसमान अमलान आत्मतत्त्वकौं अनुभवै है । एकोदेशस्वरूप अनुभवमैं स्वरूप अनुभवकी सर्वस्वजाति पहचानीहै । अनुभव । पूज्य है, परम है, धर्म है, सार है, अपार है, करत उधार है, अविकार है, करै भवपार है
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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ११८॥
सवैया.
है, महिमाको धारै है । दोषकों हरणहार है । यातें चिदानंदको सुधार है ।
देव जिनेन्द मुनीन्द सवै अनभौरस पीयक आनंद पायौ । केवलज्ञान विराजत है निति सो अनभौरस सिद्ध लखायौ ॥ एक निरंजन ज्ञायकरूप अनूप अखण्ड स्वस्वाद सुहायौ । ते धन्य हैं जगमांहि सदैव सदा अनभौ निज आपकौं भायौ ॥१॥
यह अनभौ परकाश ज्ञान निज दाय है। करि याको अभ्यास संत सुख पाय है ॥ यामें ( अनूप अरथ ) सदा भवि सरद है। कहै दीप अविकार आपपदकौं लहै ॥१॥ इति श्रीदीपचंद साधर्मीकृत अनुभवमकाश नाम ग्रन्थ संपूर्ण.
अडिल.
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________________ अनुभवप्रकाश समाप्त.