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॥ अनुभवप्रकाश || पान ५३ ॥
व्यापार सोही चेतना एक तूं जीव निज जातिस्वभाव जानु । यह चेतना है सो केवल जीव है, सो अनादि अनन्त एकरस है, तिसतैं चेतना साक्षात् आप जीव जानना, तिसतें शुद्धचेतनारूप जीव भये । इन रागादिभावविषैहू आपनमें जीव कर्मचेतनारूप होय प्रवर्ते है | चेतना जीवचेतना चेतनारूप आप तिष्ठै है । कर्मचेतना कर्मफलचेतनाविकार जीवचेतनका है । परि व्यापक चेतना है | चेतना जीवविना नाहीं है | चेतना शुद्धजीवका स्वरूप है । ताके जाने ज्ञाता जीवकै ऐसा भाव होय है ||
अब हम शुद्धचेतनारूप स्वरूप जान्या । ज्ञानदर्शन चारित्ररूप हम हैं, विका ररूप हम नांही, सिद्धसमान हैं, बन्ध मुक्ति आश्रव संवररूप हम नाहीं, हम अब जागे, हमारी नींद गई, हम अपने स्वरूपकों एक अनुभव हैं, अब हम संसार जुदे भये, स्वरूपगजपरि हम आरूढ भये, स्वरूपगृहविषै प्रवेश कीया, हम तमासगीर इन संसारपरिणामनके भये । हम अब आप अपने स्वरूपकों देखे जाने हैं । इतना विचार