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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ५२ ॥
नाहीं, कर्मदृष्टि अवलोकै, सुख कौन पावै? जैसी दृष्टि देखे, तैसौ फल होय । मयूरकौ मुकरंद पाषाण है तामैं सब मोर भास, पाषाणओर देखें मोर भासै, पदार्थओर देखे पदार्थही है, मोर नाही । तैसें परमैं पर भासै, निजओर देखे पर न भासै, निजी है । सुखकारी निजदृष्टि तजि दुःखरूप परदृष्टि न दीजै ॥
चिदानन्दराम ! आपको अमर करिकैं अवलोकौ । मरण तुममैं नही । जैसें कोई चक्ररत्न जिसके घरमैं चौदा रत्न नव निधि अर वह दरिद्री भया फिरै, ताकौं अपनें चक्रवर्तिपद अवलोकनमात्रतैं चक्रवर्ती आप होय, ऐसें स्वपदकौं परमेश्वर अवलोकै, तौ तब परमेश्वर है । देखो देखो भूल ! अवलोकनमात्रतैं परमेश्वर होय । ऐसी अवलोकना न करे, इंद्रियचोरनके वश भया अपने निधान मुसाय (लुटवाय ) दरिद्री भया, भवविपत्तिकों भरे है, भूलि न मेटे है । सो चित्तविकाररूप जीव होय, तब परकौ आपा मानै । ए भाव जीवका निज जातिस्वभाव नाहीं हैं । इन भावनतें जो