________________
॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ६९॥, हैं चिदानन्द दरसावै, अविनाशी रस पावै, जाको जस भव्य गावै, जाकी महिमा अपार है है जानैं मिटै भवभार महा, ऐसौ समयसार अविकार जानि लीजिये ।। है जीजिये सदैव कीजिये, सोही वोही द्रोही न होय, आप अवलोय, शुद्ध उपहै योग थाय, परको वियोग भाय , सहज लखाय, जिन आगममें कही वात, तिहु लोकई नाथ व्है, विख्यात निजअनुराग सेती धरि, वीतरागभाव यह दाव पायो, फिरि मिलै है है न उपाय , ऐसो भाव धरि, जातें मिटै भवफंद, तातें मानथंभ मेटि मायाजलकौं है ई जलाई । क्रोध अनि बुझाइ, लोभलहरि मिटाइ, विषयभावना न भाइ, चिदानन्दरायपद है । देखो देखो। निज आपको गवेषौ, परवेदनाकी उच्छेदना करि सहजभाव धरि अंत-है है वेदी होय, आनन्दधाराकौं देखि, परमात्मनिश्चयरूप देखि, इस परपरिणतिनारीसौं हैं ललचाये॥
कुमतिसखी संगि गतिमैं डालै, निजपरिणति राणीके वियोगतें बहुदुःखी भये ।