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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १३ ॥ जैसे कोई रत्नद्वीपका नर था। तहां रत्नके मंदिर थे। रत्नसमूहमैं रहै था । परख (कमरमें बांधनेका कटिसूत्र) न जान था। और देशमैं आया, कणगतीमैं हरिन्मणि हैं लगी थी। एकदिन सरोवर रनानको गया । जौहरीने देख्या । हन्या पाणी इसकी है १ मणिप्रभातै सरोवरका भया । तब उसपासि एक नग ले राजासमीप उस नरकौं ले है है गया। कोडि मंदिर भरै एती दीनार दिवाई। तब ओ नर पिछताया। मेरा निधान है है मैं न पिछान्या । तैसें अपना निधान आपसमीप है। पिछानतही सुखी होय है । है है मेरा आत्मा तातें ज्ञानका धारी चिदानन्द है । मेरा स्वरूप अनन्तचैतन्यशक्तिमण्डित है १ अनन्तगुणमय है। मेरे उपयोगके आधीन वण्या है। मैं मेरे परिणाम उपयोग मेरे है १ स्वरूपमैं धौंगा । अनादिदुःख मेटौंगा। सुगमराह स्वरूप पावनेका है। दृष्टिगोचर है ३ करनाही दुर्लभ है । सो संतोने सुगम कर दिया है । उनके प्रसादतें हमोनें पाया है ॥ ३ सो हमारा अखण्डविलास सुखनिवास इस अनुभवप्रकाशमैं है । वचनगोचर नाही, है