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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४९ ॥ जैसैं एक नगरमैं एक नर रहै । नगर सूना, तहां दूजा और नाहीं, सो वो नर उस नगरमैं चौरासी लाख घरि, तिन घरनकौं सदा सवायही करै, फिरि दूजे दिन है फिरि औरमैं रहै, तब वाको संवारै । इस भांति उन भीतडेको संवारतें सवारतें सारा जन्म वीता। उनके संवारनेरौं रोग भया । जवका संवारै था तबहीका रोग लग्या । आपकी परमचातुरकौं भूल्या । वा नरकों बडी विपत्ति, विनाप्रयोजन एकला सूने घरनमैं मसकति उनकी करै । आप अनन्तवलवान वृथा भूलि दुःख पावै है । इस
नरका शहर एक परमवसतीका, वहांका यह राजा है, वहांकों संभालै तौ सूने घरहै नकी सेवा तजै, वहांका राज्य करै । तैसैं यह चिदानन्द चौरासी लाख योनिके शरीहै रनकी संवारना करै । जिस घरमें रहै वसै संवारै, फिरि दूजी शरीर झोपडीकौं संवारै, है फिरि और पावै, उसको संवारता फिरै । सब देह जड, तिन जडनकी सेवा करते है करते अनादि वीता । इस शरीरसेवामै कर्मरोग अनादिका लग्या आया । तिसते इस