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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ५०॥
है रोगकरि अपना अनन्तवल छीन पऱ्या, वडी विपत्ति जन्मादि भोगवै है । जडनकों है है ऐसा मान है, मैही हौं ।
वानर एक कांकरा पडै, तब रोवै, ऐसे याके एक अङ्गभी देहका छीजै, है है तो वहुते रोवै । ये मेरै, मै इनका झूठही ऐसे जडनके सेवनतें सुख मानै । अपनी है शिवनगरीका राज्य भूल्या, जो श्रीगुरुके कहै शिवपुरीकौं संभालै, तो वहांका आप है १ चेतनराजा अविनाशी राज्य करै। तहां चेतना वसती है । तिहुँ लोकमैं आन फिरै न है है भवमें फेरि जडमैं न आवै । आनन्दघनकों पाय सदा सासतां सुखका भोक्ता होय है है सो करिये ॥
यह परमातम पुरुष तिसकी निजपरिणति अनन्तमहिमारूप परमेश्वरपदकी रम- है है णहारी, सोही मूलप्रकृति पुरुषप्रकृतिका विवेकरूप तरु, तिसके निजानन्द फल तिसकौं । है तूं रसास्वाद लेकरि सुखी होहु । जैसे कोई राजाको विरानां गढ लेना मुसकिल, तैसें है