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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४१ ॥
अनिझालं बुझावै, तासौँ लरै ! ऐसें परमैं दुःखसंयोग, परका बुझावे तास शत्रुकीसी दृष्टि देखे ! कोप करै ! इस परजोग मैं भोग मानि भूल्या, भावना स्वरसकी यादि न करै । चौरासी मैं परवस्तुकों आपा मानै । तातैं चोर चिरहीका (चिरकालका ) भया । जन्मादि दुःखदण्ड पाये तौहू चोरी परवस्तुकी न छूटे है । देखो ! भूलि तीहूं लोकका नाथ नीचपरकै आधीन भया । अपनी भूलितैं अपनी निधि न पिछानै । भिकारी भया डोलै है । निधि चेतना है सो आप है । दूरि नांही । देखना दुर्लभ है । देखे सुलभ है ॥
किसीनें पूछा, तूं कौन है ? वा कया, मैं मडा (मुर्दा मरा हुवा ) हौं तो बोलता कौन कह ? मैं जानता नाहीं । तौ मैं मडा हौं ऐसा किसने जान्या ? तव सँभाया, मैं जीवता हौं । ऐसें यह मानै, मैं देह हौं तो यह देह मैं जो मानना कीया सो कौन है ? कहै, मैं न जानौं ऐसा ल्यावना किसने कीया ? यह आपाको खोजि देखने