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॥ अनुभवप्रकाश || पान ४२ ॥
जानने परखने में स्वरूप संभारै, तब सुखी होय है । जैसें कोई मदिरा पीय उन्मत्त पुरुषाकार पाषाण थंभकौं देखि सांचा जानि उससौं लय । वह ऊपरि आप नीचे आपही भया । वाकौं कहै, मैं हाय । ऐसें परकौं आपा मानितें दुःखी भया । कोई दूजा नाही | दुःखदाता तेरी भावना भव बनाया, नापैद पैदा कीया, अचेतनकौं चलाया मूवैका जतन अनादिका करता है । आपसा तू करता है झूठी मानिमैं तेरा कीया कछु जड चेतन न होय । तूंही ऐसी झूठी कल्पनातें दुःख पावता है । तेरा क्या फायदा है ? तूही न विचारे है । मेरा फंद मै पारत हौं । कछु सिद्धि नांही । विनु विचारतें अपनी निधि भुल्या । अनन्तचतुष्टय अमृत मैला कीया । चेतना मेरा पाड्या फंद ऐसा है । आकाश बांधा है । अचरज आवै है । परि जो केवल अविद्या याही होती तो तू न आवया जाता ॥
अविद्या जड छोटी शक्ति, तेरी मोटी शक्ति, न हती जाती । परी तेरि शुद्ध