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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४०॥ लके हाथी, घोरे, नर, सेवक , स्त्री सव: तिसमैं काहूको हकम करै है। सेवक आय सलाम करै, स्त्री नृत्य करै। हाथी चहै। घोडा दौडावै । इन्द्रजालमैं सांचि जाने । विकलता धरि कबहूं काहूके वियोगतै रोवै । दुःखी होय छाती कूटै । कबहू काहूका लाभ मानि मोद करै । कबहू शृङ्गार वनावै । कवह फौज देखै । सब कहै इन्द्रजाल
झूठा है, उनमैं रंच सांच नांही। ऐसे देव, नर, नारक, तिर्यंचके शरीर जड हैं। है चेतनका अंश नांही, भ्रमतें शृङ्गारै । खान पान चोवा ( अर्क चूआ) लगावनादि है १ अनेक जतन करें। झूठहीमैं मोद मानि मानि हरखै । मूवैसौं जीवता सगाई करै! है
कार्य कैसैं सुधारै? है जैसे श्वान हाडको चावै, अपने गाल गल मसोडेका रक्त उत्तरै, ताकौं जाने।
भला स्वाद है! ऐसे मूढ आप दुःखमैं सुख कल्प है! परफंदमैं सुखकन्द सुख माने! है अमिकी झाल शरीरमै लगे, तब कहै, हमारे ज्योतीका प्रवेश होय है। जो कोई है