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॥ अनुभवप्रकाश ।। पान ४७॥
तुमारा निधान श्रीगुरुनै तुम दिया अब संभारि सुखी होहु । जैसे काहू है है नारीनें अपनी सेजपरि काठकी पूतरीकों सिंगारी सुवाणी, पति आया तब यौं जानै, है
मेरी नारी शयन करी है। हेला दे, वा न वोले, तव पवनादि खिजमति सारी रात्रि। विर्षे करी । प्रभात भया, तब जानी मै झूठही सेवा करी । ऐसें देहको सांचा आपा है है मानि सेवै है । ज्ञान भये जानै, यह झूठ अनादि देहमैं आपा मान्या। चिदानन्द है है तुम इन्द्रिय पंच चोर पोषौ हो; जानौ हौ यह हमकौं सुख दे हैं! सो अन्तरके गुण- है है रत्न ये चोर ले हैं, तुमकौं खबरी नांही । अब तुम ज्ञानखड्ग संभालौ । चोरनको ऐसे है है रोको फेरि बल न पकरै । विषयकषाय जीति निजरीतिकी राहमैं आवौ । अर तुम है है शिवपुरको पहुचि राज करौ । तुम राजा, दर्शनज्ञान वजीर राजके थंभ, गुण वसति, अनन्तशक्ति राजधानीका विलास करौ। अभेद राज राजत तुझारा पद है। अचेतन है अपावन अथिरसों कहा स्नेह करौ ? ॥