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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ४६॥ जो सुन्दर वस्तु होय तौ ऊपरिकी अङ्गीकार न कीजै। देह अशुचि नवद्वार है है सवै, दीखतहीकी ग्लानिरूप, मांहि सुन्दर होय, तौ वाहिरमें बुरी परी है । सो मांहि है १ विष्ठामूत्रकी खानि न विनसै, तो ऐसीहूं लीजै। विनसौह जौ आपकौं दुःखदायी न है है होई, तौ, तातें ऐसैंको स्नेह तुमही करौ। जन्मादिदुःख भरौ । तुमारी लार जन्मादि । है अनादिके लगे आये हैं। तूं मोनें महन्तपुरुषोंकीसी रीतिका भाव किया है, जो । हैं हमसौं लगै, तिनकौं न छोडै । यौं तौ महंत न कहावोगे। महंत तौ पापकों मेटै हु हैं होय । ये तो पापका रूप है । तातें तुम समझो। अपने धनको अंग जो विराना धन है है जाता रहै तुम फेरि ग्रहौ, ताके दण्ड भवदुःख सही हो, तोऊ परको लेते थके नाही । । है बहुत दुःखी भये परि परग्रहणकी वाण न छोडो हो । साहपद तो अपने धनतें पावोगे। है यात स्वपरविवेकी होय आत्मधन ग्रहौ । परका ममत्वकौं स्वप्नांतरमै मति करौ । तुमार है अखण्ड रत्नत्रयादि अनन्तगुणनिधान है दरिद्री नाही। जो दरिद्री होय सो ऐसे काम करै।। है