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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १०६ ॥ स्वरूपानंद पद भेदी समाधितै होय है । वस्तुका स्वरूप गुणके जानै तें जानें । गुणका पुंज वस्तुमय है। वस्तु अभेद है। भेदगुण गुणीका गुणकरि भया । तातें है गुणका भेद वस्तु अभेद जनाव.कौं कारण है ॥
वितर्क कहिये-द्रव्यका शब्द ताका अर्थ भावना भावश्रुत श्रुतमैं स्वरूप है १ अनुभवकरण कह्या । परमातम उपादेय कह्या । ताहीरूप भाव सो भावश्रुत रस पीव ।। है अमरपद समाधित है। विचार अनादि भवभावनका नाश चिदानंद द्रव्य गुण है है पर्यायका विचार न्यारा जांनि दर्शन ज्ञान वानिगीकौं पिछानि, चेतनमें मम होता है है ज्यौंन्यौं उपयोग स्वरूप लक्षणकौं लक्ष्य रसस्वाद पीवै, सो स्वपरभेद विचारने सार है । पद पाय समाधि लागी। अपार महिमा जाकी परमपद सो पाया। अनादि पर है इन्द्रियजनित आनंद माने था, सो मेट्या । ज्ञानानंदमै समाधि भई वस्तु वेदी आनंद है भया । गुण वेदि आनंद भया। परिणति विश्राम स्वरूपमै लीया, तब आनंद भया। है