________________
। अनुभवप्रकाश ॥ पान १०५॥
है थिरता पाय समाधि लागी ज्ञानधारा निरावरण होय ज्यौंज्यौं निजतत्व जानै त्यौंत्यों है है विशुद्धता केवलकरि ज्ञान परिणति परमपुरुषसौं मिली, निज महिमा प्रगट करै। तहां है है अपूर्व आनंद भावका लखाव होय तब समाधि स्वरूपकी कहिये ॥ है तहां अनादि अज्ञानका भ्रमभाव आकुलतामूल था सो मिट्या, अनात्म अभ्याई ई सके अभावतें सहज पदका भाव भावत, भववासना विलावत, दरसावत परमपदका ई स्थान गुणका निधान, अनलाम भगवान सकल पदार्थका जाननरूप ज्ञानकी है है प्रतीति प्रमाणभावकर नवनिधान आदि जगतका विधान झूठा भास्या । तब है है प्रकाश्या आत्मभाव लखाव आपके तैं कीना, तव चेतनभाव लीना, शुद्धधारणा है धरी, निजभावना करी, शिवपदकौं अनुसरी, आनंदरससौं भरी, भवबाधा अबाधा है है जहां सदा मुदा सेती एती शक्ती बढाई, शिवसुखाई, चिदानंदअधिकाई, ग्रन्थग्र-३ न्थनमैं गाई, सो समाधित पाईये है।