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|| अनुभवप्रकाश ॥ पान ८१॥
अनंतज्ञानके धारी चिदानंद है । अनादि झूठी विडंबना जडसौं आपा माननैंकी मेटौं। है तुम एक परमानि छोडौ । पराचरणहीत तुमारा दर्शन ज्ञानमैं लाभ भया है। देखनें । जाननेतें जो बंध, तातो सिद्ध लोकालोककौं देखत है, जानते हैं तेहू बंधते तिसते परिणाम तादाम्य नाहीं । तातै सिद्धभगवान न बंधै हैं। परिणामही, संसार परिणाम है ही मोक्ष मानि परिणामकै है रागद्वेष मोह परिणाम करै । इनका जतनहूं परणाम करै ।
ज्ञानदर्शनमैं रागदोष नहीं, वै देखवे जानवे मात्र है। इसकी विकारतातै वैदू विकारी है है कहावे । देखना जानना राग द्वेष मोह करि होय तो बंधे, राग द्वेष मोह न होय है
तो न बंधै । इस परिणाम शुद्धता अभव्यक न होय तातै ज्ञानदर्शन शुद्ध न होय । है भव्यकै परिणाम स्वरूपाचरणके होय तातें ज्ञानदर्श शुद्ध होय । उक्तं च पद्मनन्दि-है पचीसीमध्ये,--
“स्वानुष्ठानविशुद्धे दृग्वोधे जायते कुतो जन्म ॥