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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११६॥ पयोगी जड न देखै न जानै । यह तौ प्रसिद्ध है, जो देखै जानें। शरीर तौ गत्यंतर है जीव होय, तब शरीर क्यों न देखै ? तातें यह देखनेजाननेंकरि आपा चेतनरूप है प्रत्यक्ष ठावा करि स्वरूपकौं चेतन मांनि अचेतनकै अभिमान तजनां मोक्षका मूल है ॥
शरीरवासनाका त्यागी खरूप आपा अवगाढ चेतनस्वरूप करि भावना । उजडकौं वस्ती मानै है। चेतन वस्तीकौं उजड मान है। ऐसी भुलि मेटी, चेतनावस्ती शासती है। जहां वसै तो अपना अनंतगुणनिधान न मुसावै । निजधनका धणी परमसाह होय । तब अनंतसुखव्यापारमै अविनाशी नफा होय । अनादि है परमैं आपा मान्या । परकौं ग्रहण करत परवस्तुका चोर भया जनमाहि दुःख दण्ड है भोगवै है । विवेकराजाका अमल होय परग्रहण चोरी मिटै । तब आप साहपद धरि है
सुखी होय, तब निजपरिणतिरमणीकरि अपना निजघर थिर करै। अनादि अथिरहै पदका प्रवेश था, ताकौं सागि अखण्ड अविनाशी पदकौं पहुचै यह साक्षात् शिवमा