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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान १०० ॥ १ जुखौ । कहीँ जतनकरि जल ल्यायो, तुम बडो उपकार करौ, हमारी तृषा मेटो, है है महाजनकी चाल है परदुःख मेंटे। तातें यह उपगार करौ हम तुमकौं चिदानन्द है है प्रत्यक्ष दिखाई प्राप्ति करेंगे।
___ तब वो पुरुष बोल्यौ तुम ऐसे काहे कहौ । जलसमूहमांहि तुम सदाही रहो है हौ, ऐसे मति कहौ, जो, जल लावो, दरियाववोर देखो, यह जलसौं प्रत्यक्ष भखौ है है है। तब मछ बोल्यौ, ऐसैं तुम कहत हो, सो यह बात तुम मांनत हो, तो तुम है हैं चिदानंद प्रत्यक्ष हो, चेतना है तो ऐसो विचार तुमने कीयो है। अब तुम हमकौं है
पछण आये हौ, तातें चिदानंद हंस परमेश्वर तुमही हौ। संदेह त्यागौ थिर होइ । है आपणौ चैतन्यस्वरूप अनुभवौ परके अनादि जोग में हूं आतमा जैसाका तैसा है, है है परमै अत्यन्त गुप्त भया है। तोऊ देखनेका स्वभाव न गया। ज्ञानभाव न गया। है परिणाम न भया । परमैं बरननैनै आवस्या, मलिन भया परि निश्चयकरि अखण्ड है