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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९७ ॥ है अवर सर्वज्ञानशक्ति रही, ते अज्ञान विकाररूप वगै है। इन विकारशक्तिनकों धर्म
धारारूप कहिये । तैसेंही जीवकै दर्शनशक्ति अदर्शनरूप होयगी । तैसेंही जीवकै है चारित्रकी केतेक चारित्ररूप केतेक अवरविकाररूप हैं। ऐसें भोगगुणकी सब गुण जेतेक है निरावरण सो शुद्ध । अवर विकार सो सर्व मिश्रभाव भया । प्रतीतिरूप ज्ञानमैं सर्वशुद्ध श्रद्धाभाव भया। परि आवरणज्ञानका तथा और गुणका लग्या ह । तातें मिश्रभाव है स्वसंवेदन है । परि सर्वप्रत्यक्ष नाहीं । सर्वकर्मअंश गये शुद्ध है । अघाति रहै शुद्ध है | घातियानाशर्ते परि सकलपरमातमा है । प्रत्यक्ष ज्ञान तौ भया है। है सिद्ध निकल सकलकर्मरहित परमातमा है। अंतर आतमाक ज्ञानधारा कर्मधारा है है । कोई प्रश्न करै- जो वारमैं दोय धारा कि एक ज्ञानधाराही है? जो ज्ञानधाराही
है, तो अंतर आतमा मात कहौं । जो दोय धारा है तौ वारमै मोहक्षय भयो राग द्वेष है मोह सब गये दूसरी कर्मधारा कहां रही? ताको समाधान-ज्ञान परोक्ष है केवलज्ञाना. है