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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान २३ ।।
है न सूझे । सन्तनके प्रतापते गुण अनन्तमय चिदानन्द परमात्मा तुरंत पावै ॥ परपद है हैं आप जहांताई तहांताई सरागी भया व्याकुल रहै । ज्ञानदृष्टिसौं दर्शनज्ञानचारित्रकों है है एक पदस्वरूप अवलोकन करतही पर मानिकी तुरत हानि होय । रागविकार मिटतही है है वीतरागपद पावै । तब अनाकुल भया अनन्तसुख रसास्वादी होय आपा अमर करै । है है जैसे कोई राजा मदिरा पीय निन्ध स्थानमैं रति मान, तैसें चिदानन्द देहमैं रति है हैं मानि रह्या है। मद उतरै राजपदका ज्ञान होय राजनिधान विलसै, स्वपदका ज्ञान है भये सच्चिदानन्द सम्पदा विलसै ।।
कोई प्रश्न करै, ज्ञान तो जानपणारूप है, आपकौं क्यों न जानै? ताका समा-है धान, जानपणा अनादि परसौं व्यापि परहीका हो रहा है। अव ऐसा विचार करै, है ते शुद्ध होय। यह परका जानपणाभी ज्ञानविना न होय । ज्ञान आत्माविना न होय।। १ तातें परपदका जाननहारा मेरा पद है। मेरा ज्ञान मैं हौं । परविकार पर हैं। जहां जहां