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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान २२॥
१ भवमें न आवै, सब वेद गुण गावै । ताहि कहां लौं बतावै ? वैनगोचर न आवै । यह है है परम तत्त्व है, अतत्त्वसौं अतीत जामैं नांहि विपरीत करणी, भवदुःखनकी भरणी, । हितहरणी अनुसरणी अनादिकीही मोहराजाने वनाई । जगजीवनको भाई, दुःखदाई है है ही सुहाई, या अज्ञान अधिकाई, जातें लगी बहु काई । ज्ञानरीति उरि आनी । विप-1 हरीत करणको भानी । साधकता साधि महा होइ । निजध्यान आनन्द सुधाको व्है ।
पान । मोक्षपदको निदानी इदानींही समयमैं स्वरसी वशी भये हैं । इन्द्रियचोर कसी, है है काय निरताय निहायो पद परमेश्वरस्वरूप अघटघटमैं । व्यापक अनुप चिद्रूपकौं है । लखायो। भ्रमभावकौं मिटायो। निज आपतत्त्व पायो । दरसायो देव अचल अमेव टेव । है है सासतीको निवासी सुखरासी भवसौं उदासी हो लहै। बाहरि न वहै। निजभावहीको चहै। । हैं स्वपदका निवास स्वपदमें है । बहिरङ्गसंगमैं ढूंढि ढूंढि व्याकुल भया जैसे मृग वासकौं । हैं ढूंढे, कहूं परजायगां न पावै, तैसैं पद आपकौं परमैं न पावै ॥ मोहके विकारतें आपा है